Thursday, September 25, 2008

दर्द कुछ गहरा हो तो गुनगुनाओ.....

दर्द कुछ गहरा हो तो गुनगुनाओ.....
हेमंत दा की १९ वीं पुण्यतिथि पर विशेष


श्रीराजेश
सुरों के राही हेमंत दा को अलविदा कहे १९ साल हो गये लेकिन है अपना दिल तो आवारा...... गाने आज भी लोग गुनगुनाते है। गायन की विशिष्ठ शैली की वजह से उनकी अपने समकालीनों में अलग पहचान बनी। अपनी गहरी आवाज और विशिष्ट गायन शैली के साथ संगीत की विविध विधाओं में जबरदस्त ख्याति अर्जित करने वाले गायक-संगीतकार हेमंत कुमार की 26 सितम्बर को पुण्यतिथि है।
ऐसे समय में जब गायकी, कला से ज्यादा व्यवसाय में तब्दील हो चुका हो, रियलिटी शोज ने हर गाने वाले के सामने अवसरों की भरमार पैदा कर दी हो और प्रौद्योगिकी ने हर जुबान रखने वाले को गायक का रुतबा दे दिया हो, सच्ची और मासूम आवाज के धनी हेमंत दा जैसे गायक की याद एक ठंडी हवा के झोंके के समान आती है।
सन 1920 में वाराणसी में एक बंगाली परिवार में जन्मे हेमंत के घरवाले उनके बचपन में ही कोलकाता चले गए। आरंभिक शिक्षा दीक्षा के बाद हेमंत के परिजनों की इच्छा थी कि वे जादवपुर विश्वविद्यालय में इंजीनियरिंग की पढ़ाई करें लेकिन उन्होंने उनसे बगावत करके संगीत में अपना भविष्य चुनने की ठानी।
संगीत के प्रति अपनी दीवानगी के बारे में उन्होंने एक साक्षात्कार में कहा था, "मैं हमेशा गाने का मौका तलाशता रहता था चाहे वो कोई धार्मिक उत्सव हो या पारिवारिक कार्यक्रम। मैं हमेशा चुने हुए गीत गाना पसंद करता था।"
हेमंत दा ने जिस दौर में संगीत को गंभीरता से लेना शुरू किया उसे हिंदी सिनेमा के 'सहगल काल' के नाम से जाना जाता है। यह वह दौर था जब गायकी पर कुंदनलाल सहगल और पंकज मलिक जैसे गायकों का लगभग एकाधिकार था और नए गायकों के लिए सिने जगत में जगह बनाना ख्वाब के समान था।
चालीस के दशक के मध्य धुन के पक्के हेमंत 'भारतीय जन नाट्य संघ' (इप्टा) के सक्रिय सदस्य बन गए और वहीं उनकी दोस्ती हुई गीतकार-संगीतकार सलिल चौधरी से। सन 1948 में हेमंत ने गान्येर बधु (गांव की बहू) शीर्षक वाला एक गीत गाया जो सलिल चौधरी द्वारा लिखा और संगीतबद्ध किया गया था। छह मिनट के इस गीत में बंगाल के एक गांव की बहू के दैनिक जीवन का चित्रण किया गया था।
इस गीत ने हेमंत और सलिल दोनों को अपार लोकप्रियता दिलाई। दूसरे शब्दों में कहा जाए तो यही वह गीत था जिसने हेमंत कुमार को अपने समकालीनों के समकक्ष स्थापित किया। इसके बाद सलिल और हेमंत की जुगलबंदी ने बांग्ला संगीत जगत में खूब धूम मचाई।
कुछ बंगाली फिल्मों में संगीत देने के बाद हेमंत मुंबई आ गए और उन्होंने सन 1952 में अपनी पहली हिंदी फिल्म को संगीत दिया जिसका नाम था ‘आनंद मठ’। इस फिल्म में लता मंगेशकर के गाए गीत ‘वंदे मातरम’ ने अभूतपूर्व ख्याति अर्जित की। साथ ही साथ हेमंत ने पार्श्‍व गायक के रूप में अपनी पहचान बनानी शुरू कर दी। अभिनेता देवानंद की शुरुआती फिल्मों 'जाल' और 'सोलहवां साल' में गाए उनके गीतों 'ये रात ये चांदनी..' और 'है अपना दिल तो आवारा..' आदि ने हेमंत कुमार के लिए अपार लोकप्रियता हासिल की।
जाल, नागिन, अनारकली, सोलहवां साल, बात एक रात की, बीस साल बाद, खामोशी, अनुपमा आदि फिल्मों में हेमंत दा की मधुर आवाज का जादू लोगों के सिर चढ़कर बोलने लगा। तुम पुकार लो.., जाने वो कैसे लोग थे.., छुपा लो तुम दिल में प्यार मेरा.., ना तुम हमें जानो.. जैसे सदाबहार गीतों ने श्रोताओं के मन पर अमिट छाप छोड़ी।
तितली के परों की सी कोमल आवाज का मालिक, सुरों का यह राही 26 सितम्बर 1989 को सदा-सदा के लिए सो गया।

Thursday, August 14, 2008

झंडा ऊँचा रहे हमारा

झंडा ऊँचा रहे हमारा

सुनीता सिंह गर्ग

झंडा ऊँचा रहे हमारा..विश्व विजयी तिरंगा प्यारा..यह गीत भारत का हर बच्चा गुनगुनाता है.. बड़े ही शान से। आख़िर क्या बात है इस ध्वज में जिसने आज़ादी के परवानों में एक नया जोश भर दिया था और जो आज भी हर भारतीय को अपने गरिमामय इतिहास की याद दिलाता है और विभिन्नता में एकता वाले इस देश को एक सूत्र में बाँधे हुए है। हर स्वतंत्रता दिवस और गणतंत्र दिवस पर लाल क़िले की प्राचीर पर राष्ट्रीय ध्वज को बड़े ही आदर और सम्मान के साथ फहराया जाता है। देश के प्रथम नागरिक से लेकर आम नागरिक तक इसे सलामी देता है। 21 तोपों की सलामी से सेना इसका सम्मान करती है। किसी भी देश का झंडा उस देश की पहचान होता है। तिरंगा हम भारतीयों की पहचान है। राष्ट्रीय झंडे ने पहली बार आज़ादी की घोषणा के कुछ ही दिन पहले 22 जुलाई 1947 को पहली बार अपना वो रंग रूप पाया जो आज तक कायम है। हमारा राष्ट्रीय ध्वज तीन रंगों से बना है इसलिए हम इसे तिरंगा भी कहते हैं। सबसे ऊपर केसरिया रंग फिर सफ़ेद और सबसे नीचे हरा। बीच में गहरे नीले रंग का चक्र बना है जिसमें 24 चक्र हैं जिसे हम अशोक चक्र के नाम से जानते हैं। इस प्रतीक को सारनाथ में अशोक महान के स्तंभ से लिया गया है। तिरंगे की बनावट पर हमारे देश में काफ़ी ध्यान दिया जाता है क्योंकि ये हमारे सम्मान से जुड़ा हुआ है। हर तिरंगे में अशोक चक्र श्वेत रंग के तीन चौथाई भाग में ही होना चाहिए। राष्ट्रीय ध्वज खादी के कपड़े का होना चाहिए। आज जो ध्वज हमारे देश की पहचान है उसे इस रूप में ढालने वाले थे पिंगली वेंकैया।
तिरंगे में इन रंगो की क्या महत्ता है ये जानना बहुत ज़रूरी है। केसरिया यानी भगवा रंग वैराग्य का रंग है। हमारे आज़ादी के दीवानों ने इस रंग को सबसे पहले अपने ध्वज में इसलिए सम्मिलित किया जिससे आने वाले दिनों में देश के नेता अपना लाभ छोड़ कर देश के विकास में खुद को समर्पित कर दें। जैसे भक्ति में साधु वैराग ले मोह माया से हट भक्ति का मार्ग अपनाते हैं। श्वेत रंग प्रकाश और शांति के प्रतीक के रूप में लिया गया। हरा रंग प्रकृति से संबंध और संपन्नता दर्शाता है, और केंद्र में स्थित अशोक चक्र धर्म के 24 नियमों की याद दिलाता है।
हमारे राष्ट्रीय ध्वज का इतिहास भी बहुत रोचक है। 20वी सदी में जब हमारा देश ब्रिटिश सरकार की गुलामी से मुक्ति पाने के लिए संघर्ष कर रहा था, तब स्वतंत्रता सेनानियों को एक ध्वज की ज़रूरत महसूस हुई क्योंकि ध्वज स्वतंत्रता की अभिव्यक्ति का प्रतीक रहा है। सन 1904 में विवेकानंद की शिष्या सिस्टर निवेदिता ने पहली बार एक ध्वज बनाया जिसे बाद में सिस्टर निवेदिता ध्वज से जाना गया। यह ध्वज लाल और पीले रंग से बना था। पहली बार तीन रंग वाला ध्वज सन 1906 में बंगाल के बँटवारे के विरोध में निकाले गए जलूस में शचीन्द्र कुमार बोस लाए। इस ध्वज में सबसे उपर केसरिया रंग, बीच में पीला और सबसे नीचे हरे रंग का उपयोग किया गया था। केसरिया रंग पर 8 अधखिले कमल के फूल सफ़ेद रंग में थे। नीचे हरे रंग पर एक सूर्य और चंद्रमा बना था। बीच में पीले रंग पर हिंदी में वंदेमातरम लिखा था।सन 1908 में सर भीकाजी कामा ने जर्मनी में तिरंगा झंडा लहराया और इस तिरंगे में सबसे ऊपर हरा रंग था, बीच में केसरिया, सबसे नीचे लाल रंग था। इस झंडे में धार्मिक एकता को दर्शाते हुए हरा रंग इस्लाम के लिए और केसरिया हिंदू और सफ़ेद ईसाई व बौद्ध दोनों धर्मों का प्रतीक था। इस ध्वज में भी देवनागरी में वंदेमातरम लिखा था और सबसे ऊपर 8 कमल बने थे। इस ध्वज को भीकाजी कामा, वीर सावरकर और श्यामजी कृष्ण वर्मा ने मिलकर तैयार किया था। प्रथम विश्व युद्ध के समय इस ध्वज को बर्लिन कमेटी ध्वज के नाम से जाना गया क्योंकि इसे बर्लिन कमेटी में भारतीय क्रांतिकारियों द्वारा अपनाया गया था।
सन 1916 में पिंगली वेंकैया ने एक ऐसे ध्वज की कल्पना की जो सभी भारतवासियों को एक सूत्र में बाँध दे। उनकी इस पहल को एस.बी. बोमान जी और उमर सोमानी जी का साथ मिला और इन तीनों ने मिल कर नेशनल फ़्लैग मिशन का गठन किया। वेंकैया ने राष्ट्रीय ध्वज के लिए राष्ट्रपिता महात्मा गांधी से सलाह ली और गांधी जी ने उन्हें इस ध्वज के बीच में अशोक चक्र रखने की सलाह दी जो संपूर्ण भारत को एक सूत्र में बाँधने का संकेत बने। पिंगली वेंकैया लाल और हरे रंग के की पृष्ठभूमि पर अशोक चक्र बना कर लाए पर गांधी जी को यह ध्वज ऐसा नहीं लगा कि जो संपूर्ण भारत का प्रतिनिधित्व कर सकता। राष्ट्रीय ध्वज में रंग को लेकर तरह-तरह के वाद विवाद चलते रहे। अखिल भारतीय संस्कृत कांग्रेस ने सन 1924 में ध्वज में केसरिया रंग और बीच में गदा डालने की सलाह इस तर्क के साथ दी कि यह हिंदुओं का प्रतीक है। फिर इसी क्रम में किसी ने गेरुआ रंग डालने का विचार इस तर्क के साथ दिया कि ये हिंदू, मुसलमान और सिख तीनों धर्म को व्यक्त करता है।
काफ़ी तर्क वितर्क के बाद भी जब सब एकमत नहीं हो पाए तो सन 1931 में अखिल भारतीय कांग्रेस के ध्वज को मूर्त रूप देने के लिए 7 सदस्यों की एक कमेटी बनाई गई। इसी साल कराची कांग्रेस कमेटी की बैठक में पिंगली वेंकैया द्वारा तैयार ध्वज, जिसमें केसरिया, श्वेत और हरे रंग के साथ केंद्र में अशोक चक्र स्थित था, को सहमति मिल गई। इसी ध्वज के तले आज़ादी के परवानों ने कई आंदोलन किए और 1947 में अंग्रेज़ों को भारत छोड़ने पर मजबूर कर दिया। आज़ादी की घोषणा से कुछ दिन पहले फिर कांग्रेस के सामने ये प्रश्न आ खड़ा हुआ कि अब राष्ट्रीय ध्वज को क्या रूप दिया जाए इसके लिए फिर से डॉ. राजेंद्र प्रसाद के नेतृत्व में एक कमेटी बनाई गई और तीन सप्ताह बाद 14 अगस्त को इस कमेटी ने अखिल भारतीय कांग्रेस के ध्वज को ही राष्ट्रीय ध्वज के रूप में घोषित करने की सिफ़ारिश की। 15 अगस्त 1947 को तिरंगा हमारी आज़ादी और हमारे देश की आज़ादी का प्रतीक बन गया।
राष्ट्रीय ध्वज हमारे देश की पहचान है इसलिए इसे हर भारतीय सम्मान दे ये तो ज़रूरी है ही कोई भी व्यक्ति इसकी गरिमा को धूमिल ना करे इसके लिए भारतीय कानून में कुछ धाराएँ बनाई गई है। फ्लैग कोड इंडिया -2002 में राष्ट्रीय ध्वज से जुड़ी कुछ ख़ास बातों का ज़िक्र किया गया है जिसे हम भारतीयों को जानना ज़रूरी है। सन 2002 के पहले आम जनता राष्ट्रीय दिवस को छोड़ किसी और दिन इसे किसी सार्वजनिक स्थान पर नहीं लगा सकती थी। सिर्फ़ सरकारी कार्यालयों में ही इसे लगाया जा सकता था। सन 2002 में भारत के जाने माने उद्योगपति नवीन जिंदल ने अपने कार्यालय के ऊपर राष्ट्रीय ध्वज लगाया था जिसके लिए उन्हें सूचित किया गया कि उन्हें ऐसा करने पर कानूनी कार्यवाही से गुज़राना होगा। इसके विरोध में उन्होंने दिल्ली उच्च न्यायालय में एक जन हित याचिका इस बाबत दायर की कि भारत की आम जनता को सम्मान के साथ राष्ट्रीय ध्वज लहराने और उसे प्यार देने का नागरिक अधिकार है। यह मामला उच्च न्यायालय से उच्चतम न्यायालय में गया और न्यायालय ने भारत सरकार को इस मामले पर विचार करने के लिए एक कमेटी बिठाने की सलाह दी। अंत में भारतीय मंत्रालय ने एक संवैधानिक संशोधन कर सभी भारतवासियों को साल के 365 दिन राष्ट्रध्वज सम्मान के साथ लगाने का अधिकार दिया।
इसी के साथ ध्वज के सम्मान की बात भी स्पष्ट कर दी गई कि ध्वज फहराने के समय किस आचरण संहिता का ध्यान रखा जाना चाहिए। राष्ट्रीय ध्वज कभी भूमि पर नहीं गिरना चाहिए और ना ही धरातल के संपर्क में आना चाहिए। सन 2005 के पहले तक इसे वर्दियों और परिधानों में उपयोग में नहीं लाया जा सकता था, लेकिन सन 2005 में फिर एक संशोधन के साथ भारतीय नागरिकों को इसका अधिकार दिया गया लेकिन इसमें ध्यान रखने वाली बात ये है ये किसी भी वस्त्र पर कमर के नीचे नहीं होना चाहिए। राष्ट्रीय ध्वज कभी अधोवस्त्र के रूप में नहीं पहना जा सकता है।

Friday, August 1, 2008

तुम्हीं हो हत्यारे !

तुम्हीं हो हत्यारे !
इंद्रजीत चौबे
आईटी कंपनी में काम करने वाला रेहान अपनी बीवी और बच्ची रुकैय्या के साथ रहता था। अचानक एक दिन उसे कंपनी के काम से कुछ दिनों के लिए बाहर जाना पड़ा। रेहान के जाने के बाद हैदराबाद में रहने वाला रुकैय्या के मामा आए और रुकैय्या उनके साथ जाने की जिद करने लगी। उसकी माँ ने रेहान से संपर्क करने की अनेक कोशिशें कीं लेकिन असफल रही।बेटी की जिद के आगे माँ हार गई और उसे हैदराबाद भेजने के लिए राजी हो गई। अपना प्रोजेक्ट पूरा कर रेहान खुशी-खुशी घर लौट रहा था। लेकिन घर पहुँचते ही उसकी खुशी काफूर हो गई। उसके घर का माहौल गमगीन था और अनेक मेहमान घर में थे।
उसे बताया गया कि हैदराबाद के सिनेमाघर में हुए विस्फोट में उसकी बेटी और साले के बेटे की मौत हो गई। रेहान के पैरों तले जमीन खिसक गई। रोना चाह रहा था लेकिन आँसू नहीं निकल रहे थे। उसके मुँह से केवल इतना ही निकला 'हे मालिक ये मैंने क्या किया?' अब धीरे-धीरे माजरा सभी की समझ में आ गया। रेहान ने सच कबूलते हुए बताया कि वह किसी आईटी कंपनी में काम नहीं करता बल्कि एक आतंकी संगठन का सक्रिय सदस्य है और हैदराबाद के सिनेमाघर में उसने ही अपने सहयोगियों की मदद से बम फिट किया था।उसकी पत्नी ने उसे झंझोड़ते हुए कहा इसका मतलब तुमने ही अपनी बेटी को मारा है। तुम्हीं हो उसके हत्यारे।पहले बेंगलुरू और फिर अहमदाबाद में हुए श्रृंखलाबद्ध विस्फोट जिसमें 45 लोगों की जानें गईं। इस कायराना हरकत के लिए क्या तुम्हारा भगवान (यदि मानते हो) तुम्हें माफ कर देगा। हिंसा की इजाजत तुम्हें किसने दी और यदि इतना ही बहादुरी का जज़्बा तुम्हारे भीतर है तो क्यों नहीं जाने जाते उन सेना के जवानों के सामने जो अपने हथियारों से तुम्हारा स्वागत करेंगे। उन्हें तो तैनात ही इसलिए किया गया है। तभी तुम्हें भी अपने भीतर उठ रहे इस जज्बे का इल्म होगा।
दुनिया के किसी भी कोने से बैठकर विस्फोट की धमकी देना और किसी भी राज्य, शहर के इलाके में बम रखकर चले जाना न ही कोई बुद्धिमत्तापूर्ण कार्य है और न ही हौसले का। निर्दोष लोगों की जान लेकर सिद्ध क्या करना चाहते हो कि तुम मालिक के बताए रास्ते पर चल रहे हो।
यदि इसी दिमाग और ऊर्जा का उपयोग नेक और सकारात्मक काम में करो तो जरूर अपने घर, परिवार, समाज और देश का नाम रोशन करोगे और ईश्वर के नेक फरिश्ते कहलाओगे।
आतंकवाद जैसा अधमी कार्य करने वालों के साथ तो इनकी कौम भी नहीं होगी क्योंकि यह सभी लोग मानते हैं कि ऐसे दुराचारियों का कोई ईमान, धर्म और मज़हब नहीं होता।
ईमेल में लिखते हैं 'रोक सको तो रोक लो' चंद घंटों में ईमेल भेजने वाली जगह का पता लगाने वाली सुरक्षा एजेंसियाँ कुछ ही दिनों में इनके होश भी ठिकाने लगा देगी। यह बात भी भली-भाँति इन आततायियों के जेहन में रहती है।
इसके जिम्मेदार हम हैं : देश के प्रति प्रत्येक नागरिक का कर्तव्य है ‍कि आसाराम बापू के आश्रम में हुई 2 बच्चों की मौत का तमाशा बनाने के बजाय सही तरीके से इसकी जाँच की माँग करे। ऐसे मामलों का फैसला करने के लिए यदि दोनों पक्ष सड़क पर उतर आए तो इन विस्फोटों की जिम्मेदारी आतंकी संगठनों से पहले हम पर आएगी।
आरक्षण को लेकर चला गुर्जरों का राज्यव्यापी हिंसक आंदोलन। 20-25 दिन से अधिक समय तक प्रमुख रेलों का रद्द होना कहीं से कहीं तक आम आदमी की सुरक्षा की दृष्टि से उचित नहीं कहे जा सकते।
डेरा सच्चा सौदा के अनुयायी और सिख आमने-सामने होकर लड़ते रहेंगे, राज्य बंद कराते रहेंगे तो इन विध्वंसकारी ताकतों का काम और आसान हो जाएगा और देश की फिजाओं में जहर घोलने का अच्छा मौका मिल जाएगा। क्यों‍‍कि सुरक्षा तंत्र को बरगलाने का काम तो हम ही कर रहे हैं। उनकी भी संख्या सीमित है। कब-कब और कहाँ-कहाँ उन्हें उलझाए रखेंगे।
इसके अलावा घर के आसपास या कहीं भी सार्वजनिक स्थान पर पड़े लावा‍रिस सामान की जानकारी पुलिस को दें। नया किरायेदार रखने से पहले पुलिस को उसका विवरण देने की अपनी ‍नैतिक जिम्मेदारी को समझें।
पुलिस प्रशासन से अपेक्षाएँ ः पु‍‍लिस प्रशासन से निवेदन करूँगा कि चौराहों पर खड़े होकर मुट्‍ठी बाँधकर, छोटी सी घड़ी करा हुआ नोट जिस शान से ले लेते हैं। कम से कम गाड़ियों की इतनी तो जाँच कर लें कि इनमें किसी न किसी रूप में विस्फोटक सामग्री तो नहीं जा रही है। किरायेदारों की जानकारी देने आएँ तो उसे उगाही का जरिया न मानते हुए गंभीरता से लें क्योंकि मकान-मालिक को पता है। मोबाइल गुम होने, वाहन चोरी की रिपोर्ट बगैर खर्चा-पानी के नहीं लिखी जाएगी।
केंद्र सरकार पीड़ित परिजनों के प्रति उदारता बरतें। सांसदों की खरीद-फरोख्त (प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से) करने वाली सरकार करोड़ों रुपया बहा सकती है और विस्फोटों में मरने वालों के परिजनों को 1 लाख रुपए की घोषणा ऊँट के मुँह में जीरे के समान है। यह राशि बढ़े और जल्द से जल्द पीड़ित परिवार को मुहैया करा दी जाए।
अंत में टीवी चैनल अपनी टीआरपी बढ़ाने के चक्कर में पुलिस प्रशासन का काम न करे और उनकी एक-एक गतिविधि को अपनी ब्रेकिंग न्यूज न बनाए तो बेहतर है। दम तोड़ते हुए आदमी को टीवी पर जब बेटे ने देखा तो पूछता है पापा इस आदमी को क्या हो गया, यह ऐसा क्यों कर रहा है। था ना अंदर तक हिलाकर रख देने वाला सवाल। उस समय अपने आपको मैं कोस रहा था कि क्यों मैं यह न्यूज देख रहा था? इस सवाल का जवाब अपनी अंतरात्मा से पूछकर बताएँ कि उसे क्या जवाब दूँ?
उपरोक्त साव‍धानियाँ रख अपनी जिम्मेदारियों का निर्वहन कर निश्चित रूप से इन आतंकवादी हतोत्साहित होंगे और देश में शांति कायम होगी और हम वर्ष भर एक खुशहाल मौसम में जीवन व्यतीत कर सकेंगे।

Friday, July 18, 2008

पशुपतिनाथ से तिरुपति तक लाल कारिडोर

रूसी क्रांति से प्रेरित नक्सलवादी विचारधारा के लोगों के लिए 'नक्सलवाद' मार्क्सवाद-लेनिनवाद-माओत्सेतुंगवाद के क्रांतिकारी पर्याय के रूप में जाना जाता रहा है। नक्सलवाद के समर्थक मानते हैं कि प्रजातंत्र के विफल होने के कारण नक्सली आंदोलन का जन्म हुआ और मजबूर होकर लोगों ने हथियार उठाए, लेकिन वास्तविकता यह है कि नक्सली आंदोलन अपने रास्ते से भटक गया है इसका तात्कालिक कारण है न व्यवस्था सुधर रही है और न इसके सुधरने के संकेत हैं, इसलिए नक्सली आंदोलन बढ़ रहा है। इसमें होने वाली राजनीति को देख सोचना पड़ता है कि वर्ग संघर्ष बढ़ाने के पीछे राजनीति है या राजनीति के कारण वर्ग संघर्ष बढ़ा है। कुछ समय पहले तक नक्सलवाद को सामाजिक-आर्थिक समस्या माना जाता रहा है, मगर अब इसने चरमपंथ की शक्ल अख्तियार कर ली है। नक्सलवाद का जन्म पश्चिम बंगाल के दार्जिलिंग जिले में नेपाल की सीमा से लगे एक कस्बे नक्सलबाड़ी में गरीब किसानों की कुछ माँगों जैसे कि भूमि सुधार, बड़े खेतीहर किसानों के अत्याचार से मुक्त्ति को लेकर शुरू हुआ था। वर्तमान में नक्सलियों के संगठन पीपुल्स वार ग्रुप और माओवादी कम्युनिस्ट सेंटर (एमसीसी) दोनों संगठन मुख्यतः बिहार, झारखंड, उड़ीसा और छत्तीसगढ़ में सक्रिय हैं, जिनका शुमार गरीब राज्यों में होता है। पीडब्लूजी का दक्षिणी राज्य आंध्रप्रदेश के पिछड़े क्षेत्रों में बहुत प्रभाव है। नक्सलवादी नेता का आरोप है कि भारत में भूमि सुधार की रफ्तार बहुत सुस्त है। उन्होंने आँकड़े देकर बताया कि चीन में 45 प्रतिशत जमीनें छोटे किसानों में बाँटी गई हैं तो जापान में 33 प्रतिशत, लेकिन भारत में आजादी के बाद से तो केवल 2 प्रतिशत ही जमीन का आवंटन हुआ है। एमसीसी और पीडब्लूजी संगठनों की हिंसक गतिविधियों के चलते इनसे प्रभावित कई राज्यों ने पहले ही प्रतिबंध लगा रखा है। इनमें बिहार और आंध्रप्रदेश प्रमुख हैं। इन राज्यों के खेतीहर मजदूरों के बीच इन चरम वामपंथी गुटों के लिए भारी समर्थन पाया जाता है। इस खेप में अब छत्तीसगढ़ और मध्यप्रदेश भी आ चुके है। छत्तीसगढ़ का बस्तर जिला, जिसकी सीमाएँ आंध्रप्रदेश से लगी हुई हैं, में नक्सलवादी आंदोलन गहरे तक अपनी पैठ जमा चुका है। प.बंगाल से शुरू हुआ नक्सलवाद अब उड़ीसा, झारखंड और कर्नाटक में भी पैर पसार चुका है। प्रधानमंत्री मनमोहनसिंह भी इस पर अपनी चिंता जाहिर कर चुके हैं और इससे निपटने के लिए केन्द्र से हर सम्भव सहायता देने का वादा कर चुके हैं, पर अब तक वाम दल की बैसाखियों पर चल रही सरकार को बचाने में लगे प्रधानमंत्री और सरकार की ढुल-मुल नीतियों से फायदा उठाकर हाल ही में नक्सलवादियों ने पुलिस और विशेष दल के जवानों पर घात लगाकर किए जाने वाले हमले एकाएक बढ़ा दिए हैं।दुनिया के एकमात्र हिन्दु राष्ट्र को खत्म कर इस समय माओवादी तत्व भारत और नेपाल में अपने चरम पर है और चीन की मदद से भूटान और भारत के पूर्वोत्तर राज्यों में सक्रिय उग्र संगठनों से हाथ मिलाकर नेपाल के पशुपतिनाथ से लेकर तमिलनाडु के तिरुपति तक 'लाल गलियारा' (रेड कॉरिडोर) बनाने की जुगत में लगे हैं।

कुछ समय पहले तक नक्सलवाद को सामाजिक-आर्थिक समस्या माना जाता रहा है, मगर अब इसने चरमपंथ की शक्ल अख्तियार कर ली है। नक्सलवाद का जन्म पश्चिम बंगाल के दार्जिलिंग जिले में नेपाल की सीमा से लगे एक कस्बे नक्सलबाड़ी में गरीब किसानों की कुछ माँगों जैसे कि भूमि सुधार, बड़े खेतीहर किसानों के अत्याचार से मुक्त्ति को लेकर शुरू हुआ था। वर्तमान में नक्सलियों के संगठन पीपुल्स वार ग्रुप और माओवादी कम्युनिस्ट सेंटर (एमसीसी) दोनों संगठन मुख्यतः बिहार, झारखंड, उड़ीसा और छत्तीसगढ़ में सक्रिय हैं, जिनका शुमार गरीब राज्यों में होता है। पीडब्लूजी का दक्षिणी राज्य आंध्रप्रदेश के पिछड़े क्षेत्रों में बहुत प्रभाव है। नक्सलवादी नेता का आरोप है कि भारत में भूमि सुधार की रफ्तार बहुत सुस्त है। उन्होंने आँकड़े देकर बताया कि चीन में 45 प्रतिशत जमीनें छोटे किसानों में बाँटी गई हैं तो जापान में 33 प्रतिशत, लेकिन भारत में आजादी के बाद से तो केवल 2 प्रतिशत ही जमीन का आवंटन हुआ है। एमसीसी और पीडब्लूजी संगठनों की हिंसक गतिविधियों के चलते इनसे प्रभावित कई राज्यों ने पहले ही प्रतिबंध लगा रखा है। इनमें बिहार और आंध्रप्रदेश प्रमुख हैं। इन राज्यों के खेतीहर मजदूरों के बीच इन चरम वामपंथी गुटों के लिए भारी समर्थन पाया जाता है। इस खेप में अब छत्तीसगढ़ और मध्यप्रदेश भी आ चुके है। छत्तीसगढ़ का बस्तर जिला, जिसकी सीमाएँ आंध्रप्रदेश से लगी हुई हैं, में नक्सलवादी आंदोलन गहरे तक अपनी पैठ जमा चुका है। प.बंगाल से शुरू हुआ नक्सलवाद अब उड़ीसा, झारखंड और कर्नाटक में भी पैर पसार चुका है। प्रधानमंत्री मनमोहनसिंह भी इस पर अपनी चिंता जाहिर कर चुके हैं और इससे निपटने के लिए केन्द्र से हर सम्भव सहायता देने का वादा कर चुके हैं, पर अब तक वाम दल की बैसाखियों पर चल रही सरकार को बचाने में लगे प्रधानमंत्री और सरकार की ढुल-मुल नीतियों से फायदा उठाकर हाल ही में नक्सलवादियों ने पुलिस और विशेष दल के जवानों पर घात लगाकर किए जाने वाले हमले एकाएक बढ़ा दिए हैं।दुनिया के एकमात्र हिन्दु राष्ट्र को खत्म कर इस समय माओवादी तत्व भारत और नेपाल में अपने चरम पर है और चीन की मदद से भूटान और भारत के पूर्वोत्तर राज्यों में सक्रिय उग्र संगठनों से हाथ मिलाकर नेपाल के पशुपतिनाथ से लेकर तमिलनाडु के तिरुपति तक 'लाल गलियारा' (रेड कॉरिडोर) बनाने की जुगत में लगे हैं। इस 'लाल बेल्ट' में उत्तर भारत के बिहार और उत्तरप्रदेश (नेपाल से लगी सीमा) से लेकर प. बंगाल, झारखंड, उड़ीसा, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, आंध्रप्रदेश, मध्यप्रदेश, कर्नाटक तथा तमिलनाडु शामिल हैं। माओवादियों की पूरी कोशिश है कि इस लाल गलियारे को पूरी तरह अस्तित्व में लाकर भारत को विभक्त कर दें। इनकी मंशा है कि दक्षिण भारत के कुछ हिस्सों को भारत से अलग किया जा सके तथा पूर्वोत्तर राज्यों को भी भारत से अलग किया जा सके, ताकि चीन अपना शिकंजा इन राज्यों पर जमा उन्हें तिब्बत की भाँति हड़प ले। ‘जनताना सरकार’ (जन सरकार) का नारा देकर नक्सली प्रभावित क्षेत्रों में नक्सलियों ने अपनी समानांतर सरकार और न्याय व्यवस्था शुरू कर दी है। गोरिल्ला लड़ाई में माहिर नक्सलवादी और माओवादी पुलिस और सुरक्षा बलों पर योजनाबद्ध तरीकों से हमले कर उन्हें अपना निशाना बनाते हैं। उनकी रणनीति और युद्ध योजना के आगे अल्प प्रशिक्षित पुलिस बल पुराने हथियारों और तरीकों से चलते बेबस नजर आता है।
हाल ही में आंध्रप्रदेश में नक्सलियों से निपटने के लिए बनाए गए 'विशेष ग्रे-हाउंड दस्ते' की नौका पर हाई कैलिबर की मशीन गन से घात लगाकर हमला किया गया। यह हमला इतना सुनियोजित था कि तैरकर बच निकलने की कोशिश करते ग्रे-हाउंड के जवानों को भी किनारे पर बैठे नक्सली शार्प-शूटर्स अपनी गोलियों का निशाना बनाते रहे। इसी तरह उड़ीसा के मलकानगिरी में सुरक्षाबल का एंटी-माइन वाहन भी हाई एक्सप्लोसिव से उड़ा दिया गया और धमाके में बचे जवानों पर घात लगाकर बैठे नक्सलियों ने हमला कर दिया। इसमें 21 जवानों की मौत हो गई। यह चरमपंथी अपनी कार्रवाई करने के बाद दूसरे राज्यों की सीमा में भाग जाते हैं और जब तक उस राज्य की सरकार कुछ कदम उठाए, तब तक नक्सली कानून की पकड़ से काफी दूर निकल जाते हैं। इस तरह की रणनीति अधिकतर दक्षिण-पूर्व एशिया की सेनाएँ बनाती हैं। इनके हथियार, गोलाबारूद के कैलिबर व सैन्य रणनीति इस बात के पुख्ता सबुत है कि इन नक्सलियों को विदेशी ताकत का समर्थन मिल रहा है। अंतरराष्ट्रीय संबंध : भारत के इस सशस्त्र वामपंथी आंदोलन ने पिछले कुछ वर्षों में अंतरराष्ट्रीय संपर्क भी विकसित किए हैं। वर्ष 2001 में दक्षिण एशिया के 11 मार्क्सवादी-लेनिनवादी संगठनों ने मिलकर एक संगठन बनाया सी. कॉम्पोसा यानी कॉर्डिनेशन कमेटी ऑफ माओइस्ट पार्टीज ऑफ साउथ एशिया। इसमें मुख्य भूमिका नेपाल की सीपीएन (माओवादी) की है। यहाँ तक कहा जाता है कि किसी जमाने में एक-दूसरे के कट्टर विरोधी रहे पीपल्सवार और एमसीसीआई को नजदीक लाने में भी सीपीएन (माओवादी) की महत्वपूर्ण भूमिका थी।माओवादी पार्टी का संपर्क और समन्वय नेपाल, बांग्लादेश, भूटान और श्रीलंका के सशस्त्र क्रांतिकारी संगठनों से है। जानकार इसे नेपाल से लेकर आंध्रप्रदेश के समुद्र तट तक 'माओवादी बेस एरिया' बनाने की इस संगठनों की भविष्य की रणनीति के रूप में देखते हैं। विडम्बना यह है कि भारत सरकार नक्सलवाद से निपटने के लिए न तो वैचारिक रूप से तैयार है न ही इसे खत्म करने के लिए दृढ़ मानसिकता बना पा रही है। पुराने कानून और लचर प्रशासनिक ढाँचे के साथ बेमन से लड़ी जा रही इस लड़ाई में सफलता के लिए एक विस्तृत योजना, कारगर रणनीति और प्रशिक्षित बल की आवश्कता है। सबसे ज्यादा आवश्यकता ऐसे नेतृत्व की है, जिसमें इस समस्या को समूल नष्ट करने की इच्छाशक्ति और विश्वास हो। इस समस्या से निपटने का सबसे कारगर तरीका है कि सबसे पहले नक्सली प्रभावित राज्य मिलकर एक टास्क फोर्स का गठन करें, जिसे सभी राज्यों में कार्रवाई की स्वतंत्रता हो। नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में शिक्षा और जनहित के कार्यों को प्राथमिकता से कराया जाए। नेपाल से लगी सीमा पर चौकसी बढ़ाई जाए, जिससे हथियारों और गोला-बारूद की आपूर्ति पर रोक लगे। ऐसे स्थानीय तत्वों की पहचान करें, जो नक्सलियों को मदद देते हों। इस समस्या से निजात पाने के लिए सबसे जरूरी है जन-साधारण का समर्थन और विश्वास हासिल किया जाए। बंदूक जिनके लिए राजनीति है और सशस्त्र राजनीतिक संघर्ष के जरिए भारत में नव-जनवादी क्रांति जिनका सपना है, वे हथियार छोड़ेंगे नहीं और उनकी उठाई माँगें पूरा करना फिलहाल सरकार के बस में नहीं दिखता, मगर एक बात ध्यान में रखना चाहिए कि केवल विध्वंस करना ही क्रांति नहीं है, क्रांति निर्माण करने का नाम भी है।
- साभार वेबदुनिया

विदेश जाने का जुनून

अनूप कुमार मिश्र, नई दिल्ली

अपने सपनों को साकार करने के लिए विदेश का रूख करने वाले नौजवानों पर विदेश जाने का जुनून किस कदर हावी हो चुका है, इसका इसी बात से पता चलता है कि वे वहां जाने के लिए लाखों रूपए खर्च करने के साथ गैर कानूनी तरीकों को भी अख्तियार करने से बाज नहीं आते हैं। पहले मामला फर्जी दस्तावेजों तक ही सीमित था, पर अब इन नौजवानों ने अपने सपनों को पूरा करने के लिए ऐसे रास्तों को अख्तियार करना शुरू कर दिया है जिसका अंदाजा लगाना ही मुश्किल था। मसलन किसी और के पासपोर्ट के पन्नों को अपने पासपोर्ट पर लगा कर विदेश जाने की कोशिश, वीजा के स्टीकरों में हेरा-फेरी व फर्जी वर्क परमिट आदि का प्रयोग। एयरपोर्ट के सूत्रों की मानें तो अब ये लोग इतनी होशियारी से अपने दस्तावेजों में हेर-फेर करते हैं कि उन्हें आसानी से पकड़ पाना बड़ा मुश्किल है। हाल में ही इंदिरा गांधी अंतर्राष्ट्रीय एयरपोर्ट पर कुछ ऐसे मामलों का खुलासा हुआ है, जिसमें विदेश जाने के सपने को पूरा करने के लिए नौजवानों ने न केवल फर्जी दस्तावेजों का प्रयोग किया बल्कि वे पासपोर्ट के पेजों में हेराफेरी करने से बाज नहीं आए। एयरपोर्ट पर जांच के दौरान पकड़े जाने पर इन यात्रियों के विदेश जाने के मंसूबों पर पानी तो फिर ही, परिजनों द्वारा बनाई गए इज्जत भी दांव पर लग गई। गैर कानूनी तरीके से विदेश जाने का प्रयास कर रहे ये यात्री अब तिहाड़ जेल में हैं या फिर अपने को बेगुनाह साबित करने के लिए पुलिस स्टेशनों व कोर्ट-कचहरी के चक्कर काट रहे हैं। एयरपोर्ट सूत्रों के मुताबिक 14 जुलाई 2008 को ही आईजीआई एयरपोर्ट में ऐसे ही दो मामलों का खुलासा हुआ है। पहले मामले में सुरेंद्र सिंह नामक युवक डेनमार्क जाने के लिए आईजीआई एयरपोर्ट पहुंचा। उसे यहां से फ्लाइट संख्या ईवाई-211 से अबूधाबी व अबूधाबी से फ्लाइट संख्या ईवाई-31 से पेरिस के लिए रवाना होना था। एयरपोर्ट पर पासपोर्ट व अन्य कागजातों की जांच के दौरान अधिकारियों को शक हुआ कि पासपोर्ट दुबारा सिला गया है। गहराई से जांच करने पर अधिकारियों का आशंका और बढ़ गई कि पासपोर्ट की पेज संख्या 25-26, जिस पर वीजा जारी किया गया है उसमें भी छेड़छाड की गई है। यूवी लाइट से जांच करने पर पता चला कि सुरेंद्र के पासपोर्ट के जिस पेज पर पेज संख्या 25-26 लिखा है, उसकी वास्तविक पेज संख्या पांच हैं। जिसे किसी दूसरे पासपोर्ट से निकाल कर इस पासपोर्ट में लगाया गया है। अधिकारियों ने हेराफेरी के आरोप में सुरेंद्र को गिरफ्तार कर लिया। पूछताछ में उसने बताया कि इस फर्जी वीजा को पाने के लिए सोनू नामक एजेंट को उसने दस लाख रूपए दिए थे। ठीक इसी तरह के एक दूसरे मामले में 14 जुलाई को ही अधिकारियों ने आईजीआई एयरपोर्ट से रमन कुमार नामक यात्री को गिरफ्तार किया। यह यात्री भी फ्लाइट संख्या ईवाई-211 से मिलान के लिए रवाना होने वाला था। पासपोर्ट की जांच के दौरान एयरपोर्ट अधिकारियों ने पाया कि रमन के पासपोर्ट में न केवल स्टीकरों से छेड़छाड़ की गई है बल्कि कुछ पेजों को भी बदला गया है। पूछताछ के दौरान रमन ने एयरपोर्ट अधिकारियों को बताया कि उसने पुर्तगाल जाने के लिए वीजा का आवेदन किया था। एंबेसी अधिकारियों ने वीजा का आवेदन तो निरस्त किया ही, पासपोर्ट पर वीजा डिनायड की मुहर भी लगा दी। भविष्य में यह मोहर उसे परेशान न करे, इसके लिए उसने शर्मा नामक एक एजेंट को दस हजार रूपए देकर मुहर हटाने का काम सौपा। साथ ही सुरजीत सिंह नामक एजेंट को पांच लाख रूपए देकर मलेशियन वीजा का इंतजाम करने को कहा। फर्जी कागजातों व गैर कानूनी तरीकों से रमन ने वीजा तो हासिल कर लिया, लेकिन विदेश जाने की हसरत पूरी होने के बजाय अब जेल पहुंच चुका है। एयरपोर्ट अधिकारियों के मुताबिक वीजा से छेड़छाड़ एवं फर्जी दस्तावेजों के जरिए विदेश जाने को तत्पर युवकों की तादाद काफी है। चाहे रूपया खर्च करना पडे़, जेल जाना पडे़ या फिर कोई भी कीमत चुकानी पडे़। वे किसी बात की परवाह नहीं करते।

Wednesday, July 16, 2008

खूबसूरती का मिला खामियाज़ा

खूबसूरती का मिला खामियाज़ा
श्रीराजेश, कोलकाता
रिऐलिटी शो के ज़माने में जहां बच्चे अपने टैलंट का खूब प्रदर्शन कर वाहवाही लूट रहे हैं , तो वहीं दूसरी ओर कोलकाता के एक कॉलिज ने एक स्टूडंट को अपने यहां ऐडमिशन देने से सिर्फ इसलिए इनकार कर दिया , क्योंकि वह स्टूडंट मॉडलिंग करती है।
कोलकाता की 17 वर्षीय संपूर्णा लाहिड़ी ने अलीपुर मल्टीपरपज़ गवर्नमंट कॉलिज में ऐडमिशन के लिए अप्लाई किया था , लेकिन कॉलिज के प्रिंसिपल ने उसे ऐडमिशन देने से मना कर दिया , क्योंकि संपूर्णा एक लेडीज़ मैगजीन के लिए मॉडलिंग करती रहती हैं। इसी कॉलिज से फर्स्ट डिविज़न में हाई स्कूल कर चुकीं संपूर्णा इसी साल एक ब्यूटी कॉन्टेस्ट में टॉप 10 में थीं , जिस कारण उन्हें यह मॉडलिंग कॉन्ट्रैक्ट मिला था।
कॉलिज प्रिंसिपल के अनुसार ऐसा इसलिए किया गया , क्योंकि जिससे कॉलिज में ' होमली एटमॉसफेयर ' कायम रह सके। उनका कहना है कि अगर संपूर्णा अपना मॉडलिंग कॉन्ट्रैक्ट कैंसिल कर दें , तो उन्हें ऐडमिशन दिया जा सकता है।
कॉलिज की इस शर्त के बाद संपूर्णा के पैरंट्स ने तय किया है कि वे उनका ऐडमिशन किसी और कॉलिज में कराएंगे। इस बारे में संपूर्णा कहती हैं , ' कॉलिज के प्रिंसिपल ने मुझसे कहा कि अगर मैं वहां पढ़ना चाहती हूं , तो मुझे मॉडलिंग और फोटोशूट्स छोड़ने पड़ेंगे। मुझे महिला मैगज़ीन के साथ अपना कॉन्ट्रैक्ट तोड़ना होगा। यह सब सुनकर मैं तो हैरान रह गई और मेरे आंसू तक आ गए। इस बाबत कॉलिज के प्रिंसिपल से बात की , तो उन्होंने आनाकानी करते हुए कहा कि अभी यह केस सेटल नहीं हुआ है , इसलिए इस मामले पर मैं अभी कुछ नही कहूंगा।
लेकिन संपूर्णा के पिता नीलाद्री लाहिड़ी का स्पष्ट कहना है कि कॉलिज को अपनी पुरानी दकियानूसी सोच को बदलना चाहिए। उनका कहना है कि इसका विरोध करना बहुत जरूरी है , क्योंकि आज संपूर्णा का मामला है , तो कल किसी और को भी ऐसे फैसलों से जूझना होगा।
पश्चिम बंगाल के हायर सेकंडरी एजुकेशन कॉउंसिल के सेक्रेटरी देबाशीष रॉय ने इस मसले पर कहा कि किसी भी कॉलिज को इस आधार पर ऐडमिशन देने से इनकार करने का अधिकार नहीं है। उन्होंने संपूर्णा के पिता से लिखित शिकायत करने को कहा है , ताकि इस मामले पर उचित कार्रवाई हो सके।

लालकिले की सुरक्षा में खामियां!

निश्छल भटनागर, नई दिल्ली
विश्व धरोहर लाल किला सुरक्षा के लिहाज से महफूज नहीं रहा। मुगल काल और स्वतंत्रता संग्राम की विरासतों को सहेजने वाले संग्रहालय हों या अन्य महत्वपूर्ण स्थल। कहीं गड़बड़ हो जाए, तो घंटों पता नहीं चलेगा। किले के बाहर अ‌र्द्धसैनिक बल सुरक्षा की कमान जरूर संभाले हैं, मगर भीतर व्यवस्था में छेद हैं। अरसे से निजी सुरक्षा एजेंसी यहां की चौकसी को लेकर कर्मियों की कमी का रोना रो रही है, पर किसी को परवाह नहीं। किले में 20 चुनिंदा जगहों पर पर्याप्त संख्या में सुरक्षा-कर्मियों की तैनाती जरूरी है, मगर कई जगहों पर सुबह से रात तक एक निजी सुरक्षाकर्मी ही तैनात रहता है। याद रहे कि 15 अगस्त भी करीब है। गौरतलब है कि लाल किले की हिफाजत के लिए यहां सीआईएसएफ और सीआरपीएफ की टुकडि़यां तैनात हैं। दिल्ली पुलिस के अलावा एएसआई ने निजी सुरक्षा एजेंसी एसआईएस को भी निगरानी की जिम्मेदारी सौंपी है। लेकिन पिछले कुछ महीनों से लाल किला खतरे की जद में आ गया है। किले में कई ऐसे स्थान हैं, जहां सुबह से रात 9 बजे तक लगातार चौकसी जरूरी है। लेकिन निजी सुरक्षा कर्मियों की कमी के चलते व्यवस्था राम भरोसे है। खास यह कि किले के दीदार को आने वालों का आंकड़ा शनिवार व रविवार को 50 हजार के पार हो जाता है, जबकि आम दिनों में यहां 15 से 20 हजार लोग आते हैं। विश्वस्त सूत्रों के मुताबिक कुल 20 ऐसे स्थान चिन्हित हैं, जहां पर्याप्त सुरक्षाकर्मी होने चाहिए। इनमें शाहबुर्ज क्षेत्र, खास महल, रंग महल, मुमताज महल संग्रहालय, अधीक्षण पुरातत्वविद कार्यालय, दीवान-ए-आम, नौबतखाना, चार सिखलाई क्षेत्र, सलीमगढ़ किला क्षेत्र, लाहौरी गेट, स्वतंत्रता संग्राम सेनानी संग्रहालय, दिल्ली गेट, टैरीटोरियल आर्मी क्षेत्र, 15 अगस्त पार्क, माधवदास क्षेत्र, पेपी मार्केट, महानिदेशक बंगला, बुक स्टॉल और अधिकारी हॉस्टल शामिल हैं। इनमें कुछ जगह तो अ‌र्द्ध सैनिक बल के गिने-चुने जवान रहते हैं। बाकी सुरक्षा का जिम्मा निजी सुरक्षा एजेंसी के 67 जवान तीन अलग अलग शिफ्टों में निभाते हैं। वह भी सिर्फ 3 वॉकी-टॉकी सेट के साथ। सूत्रों का कहना है कि लगभग दो वर्ष पहले पुरातत्व विभाग के सीनियर कंजरवेशन असिस्टेंट के जरिए दिल्ली सर्कल के अधीक्षण पुरातत्वविद को महत्वपूर्ण स्थल दर्शाते हुए 55 सुरक्षा कर्मियों समेत करीब 20 वॉकी टॉकी वायरलेस सेट मांगे गए थे, लेकिन कुछ नहीं हुआ। किले का एक पूरा चक्कर ढाई किलोमीटर से भी लंबा पड़ता है। वायरलेस सेट न होने से सुरक्षा कर्मियों को किले के बार-बार चक्कर लगाने पड़ते हैं। यहां स्थिति पर नजर डालें, तो टी-5 क्षेत्र में बने कमरों को तोड़कर अब पार्किंग बन गई है, जहां 5 गेट हैं। तीन गेट कार-जीप और दो गेट बसों के लिए हैं। इन गेटों पर सुरक्षा की जिम्मेवारी सिर्फ एक गार्ड संभालता है। यही हाल 15 अगस्त पार्क का भी है। पार्क में 11 गेट हैं। लेकिन एक अदद गार्ड पर सुरक्षा का दारोमदार है। पार्क इतना लंबा है कि दूर से सुरक्षा कर्मी किसी को देख भी ले, तो पता लगाना मुश्किल होगा कि करीब आने वाला अमन पसंद है या दुश्मन। अमूमन सुबह 6 से दोपहर दो बजे, दो से रात दस बजे और रात 10 से सुबह छह बजे तक तीन शिफ्टों में सुरक्षा कर्मियों की डयूटी लगती है। कहां-कहां हैं सुरक्षा में खामियां किले में मोज क्षेत्र में आम आदमी का प्रवेश प्रतिबंधित है, लेकिन सुरक्षा कर्मियों की कमी से चोरी-छिपे लोग दस्तक देते रहते हैं। किले की चारदीवारी के बाहर दिल्ली गेट से लाहौरी गेट तक अंदर से सड़क गई है। यहां भी लोग अक्सर नजरें बचाकर निकलते रहते हैं। तकरीबन सभी संग्रहालयों में सिर्फ एक गार्ड बाहर गेट पर चेकिंग करता है, ऐसे में अगर कोई शरारती तत्व संग्रहालय के अंदर शीशा तोड़कर मुगल कालीन या आजादी से ताल्लुक रखने वाले दस्तावेज या विरासत को उड़ा ले जाए, तो घंटों पता नहीं चलेगा। जानकारों का कहना है कि सीआईएसएफ के करीब 300 जवान विभिन्न शिफ्टों में किले के भीतर और बाहर सुरक्षा में तैनात किए गए हैं। पहले भी हुई हैं अप्रिय घटनाएं सन 2000 में आतंकी सलीमगढ़ किले की तरफ से लाल किले में सेंध लगा चुके हैं। तब उन्हें खदेड़कर किले की हिफाजत करते हुए कुछ जवानों को अपना खून तक बहाना पड़ा था। अंदर आईटीडीसी रेस्टोरेंट में करीब डेढ़ वर्ष पहले चोरी हुई थी और सजावट के तौर पर लगी एक खूबसूरत कलाकृति भी चोरी हो चुकी है। दिल्ली पुलिस की लगातार पैट्रोलिंग के बावजूद बीती अप्रैल-मई के बीच 10 दिनों में 4 बार आग लगने की घटनाएं भी हो चुकी हैं।

Saturday, July 12, 2008

अब कोलकाता नहीं आते पूरबिया बालम

श्रीराजेश
ज्यादा दिन नहीं हुए। अस्सी के दशक तक बंगाल की पहचान जूट मिलों से थी। लाखों श्रमिक इस उद्योग से जुड़े थे। जूट मिलों की चिमनियों से निकलता धुआं लाखों पाट किसानों को भरोसा देता था। भोजपुरी प्रदेश के लोकगायन में पूरबी की प्रधानता कलकत्ता गये बालमों की संख्या से जोड़ कर देखी जा सकती थी। ''लागल नथुनिया के धक्का बलम पहुंच गइले कलकत्ता '' जैसे गीत ऐसे ही प्रवासी बालम के लिए लिखे गये। बिहार-उत्तर प्रदेश से लाखों लोग कलकत्ता पहुंचते थे। समय के साथ हालात बदले। एक के बाद एक जूट मिलें बंद होती गयीं। प्लास्टिक का जलवा कायम हुआ तो जूट उत्पादों की महत्ता घट गयी। जूट मिलों में तालाबंदी अखबारों की सुर्खियां हुआ करती थीं। बाद में यह सामान्य प्रक्रिया हो गयी। आज ज्यादातर मिलों की हालत खस्ता है और मजदूर बेहाल हैं।
बिहार, उत्तर प्रदेश, उड़ीसा, आंध्रप्रदेश व तमिलनाडू के लाखों प्रवासी मजदूर इन मिलों में काम करते हैं। सस्ता श्रम और जल परिवहन की उत्तम व्यवस्था ने यहां के जूट उद्योग को बुलंदी पर पहुंचाया। कोलकाता व इसके उपनगरीय क्षेत्रों में जूट मिलों का इतिहास लगभग दो सौ वर्ष का है। हुगली नदी के दोनों किनारों पर 200 से अधिक जूट मिलें स्थापित हुईं जिनमें से सिर्फ 53 बची हैं।
कोलकाता से 27 किलोमीटर दूर उत्तर चौबीस परगना जिले के टीटागढ़ स्थित एंपायर जूट मिल के मजदूर मुरलीधर साव कहते हैं कि वह दिन सुनहरे थे। मिलों में काम कर मजा आता था। हंसी-ठहाकों से डिपार्टमेंट गूंजा करते थे। लेकिन अब सब बदल गया है। अपने बेटे को कमाने के लिए दिल्ली भेजा है। मिल कब बंद हो जाये इसकी कोई गारंटी नहीं है। मुरलीधर बिहार के सीवान जिले से अपने गांव के एक व्यक्ति के साथ 40 साल पहले यहां आये। अब वह रिटायरमेंट का बाट जोह रहे हैं। उसके बाद गांव चले जायेंगे।
70 के दशक तक स्थिति अच्छी थी। ड्यूटी का सायरन बजने पर सड़कें मजदूरों की आवाजाही से खचाखच भर जाती थीं। अब वीरानी छायी है। कोलकाता के आसपास के उपनगरों को भोजपुरी समाज ने आबाद किया। इन बस्तियों के माहौल को देखकर बिहार के किसी बाजार की याद बरबस ही आ जाती है।

कहा जाता है कि पश्चिम बंगाल के विकास में भोजपुरिया समाज की श्रम शक्ति तथा मारवाड़ियों ने पूंजी का बहुत बड़ा योगदान है। प्रत्यक्ष रूप से जूट मिलें तकरीबन दो लाख मजदूर परिवारों का सहारा थीं। लगातार मिलों के बंद होने से ज़्यादातर प्रवासी मजदूर बोरिया बिस्तर समेटकर अपने गाँव लौट गये। जो बचे हैं वे रिटायर होने के बाद अपनी पीएफ तथा ग्रेच्युटी की रकम प्राप्त करने के इंतजार में हैं।
इन मिलों की खस्ता हालत के संबंध में मिल मालिकों का कहना है कि बाजार में अब जूट के बोरियों की मांग पहले जैसी नहीं रह गयी है। मशीनें पुरानी हो गयी हैं। प्लास्टिक से मिल रही चुनौती व बाजार के सिमटने जैसे कारकों से लाभ घटा है। मिलों के आधुनिकीकरण में काफी खर्च है। प्रमोटर के रूप में जूट उद्योग में कदम रखने वाले उद्योगपति घनश्याम सारडा नौ जूट मिलों को चलाते हैं। वे कहते हैं कि हमें भी विभिन्न तरह की दिक्कतें झेलनी पड़ रही हैं। बदहाली की वजह से अब मजदूर पश्चिमी प्रदेशों की ओर पलायन कर रहे हैं। यहां कुशल श्रमिकों का अभाव हो गया है। इसलिए सारडा समूह अपनी मिलों में श्रमिकों को प्रशिक्षण दिलाता। काम सीखने वाले श्रमिकों को प्रतिदिन 40 रुपये बतौर स्टाइपेंड दिया जाता है।
पश्चिम बंगाल उद्योग विकास निगम के अनुसार राज्य में 59 जूट मिलें हैं। इनमें से केंद्र सरकार की पांच जूट मिलें व एक निजी कंपनी की मिल बंद है। फिलहाल 53 जूट मिलें चल रही हैं। इनमें से कई मिलें इंडियन जूट मिल्स एसोसिएशन (इज्मा) की सदस्य नहीं हैं लेकिन इऩ मिलों में 39, 733 लूम व 5,07, 960 स्पेंडल के माध्यम से सालाना 6, 24, 000 टन जूट की बोरियों, सैकिंग व हैसियन का उत्पादन होता है। इज्मा के अनुसार यूं तो जूट से निर्मित फैशनेबल उत्पादों का बाजार अच्छा है लेकिन पारंपरिक जूट की बोरियों का बाजार सिमट रहा है। पिछले पांच वर्ष में जूट की बोरियों के व्यवसाय में तकरीबन 4 से 5 फीसदी प्रति वर्ष गिरावट दर्ज की जा रही है।
उधर, मजदूर संगठनों का कहना है कि वामपंथी मज़दूर यूनियनों के उग्र आंदोलनों, राज्य व केंद्र सरकार की ग़लत उद्योग नीतियों और मिल मालिकों की फूट डालो मिल चलाओ की नीति ने ज़्यादातर मिलों को बदहाली के कगार पर पहुंचा दिया है। पश्चिम बंगाल प्रदेश इंटक के महासिचव गणेश सरकार का कहना है कि राज्य सरकार औद्योगिक विकास के लिये तमाम तरह के विवाद को जन्म तो दे रही है लेकिन पारंपरिक जूट उद्योग के पुनरोद्धार की फिक्र नहीं है। उनका आरोप है कि वाममोर्चा के शासनकाल में जूट उद्योग चौपट हो गया।
श्री सरकार का कहना है कि मजदूरों के भविष्यनिधि व चिकित्सा बीमा के कोष में अपना अशंदान नहीं देने से मार्च 2008 तक भविष्यिनिधि मद में 160 करोड़ व चिकित्सा बीमा का 85 करोड़ से अधिक राशि बकाया है।
श्रम मंत्री मृणाल बनर्जी ने कहा कि जूट मजदूर प्रतिदिन दो सौ तक की मजदूरी पाते हैं। वह वाममोर्चा व वामपंथी ट्रेड यूनियनों के आंदोलन की देन है। इसके अलावा केंद्र सरकार की गलत जूट नीति का खामियाजा मजदूरों को भुगतना पड़ रहा है। राज्य सरकार की पहल पर कई मिलें दोबारा खुली हैं। हाल में केंद्र सरकार की नेशनल जूट मैन्यूफैक्चरिंग कॉरपोरेशन की टीटागढ़ इकाई बंद हो गयी। इससे दस हजार मजदूर बेरोजगार हो गये। आखिर इसके लिए कौन जिम्मेदार है ?
मिलों में ट्रेड यूनियनों के बीच वर्चस्व की लड़ाई और आरोप प्रत्यारोपों के बीच होने वाली द्विपक्षीय या त्रिपक्षीय वार्ताओं से एक मिल खुलती है, तब तक कई अन्य मिलें बंद हो जाती हैं। मिलों की खाली जमीनों पर बिल्डरों की नजरें टिकी रहती है। कई मिलों की जमीन पर अब अपार्टमेंट नजर आते हैं।
नेताओं के निजी स्वार्थ की वजह से ट्रेड यूनियनों की विश्वसनीयता कम हो गयी है। इसका फायदा मालिक जम कर उठा रहे हैं। एक तरफ स्थाई मजदूरों की छंटनी की जाती है और दूसरी ओर कम वेतन पर अकुशल व बदली (अस्थाई) मजदूरों को बहाल किया जाता है। मजदूरों के भविष्यनिधि, ग्रेच्युटी और चिकित्सा बीमा के लिए अपना अंशदान भी देना पिछले कई सालों से कुछ मिल मालिकों ने बंद कर दिया है। कुल मिलाकर जूट उद्योग चौपट है।

डेढ़ महीनें में फिर बंद हुई चार मिलें
पिछले डेढ़ महीने के दौरान राज्य की तीन जूट मिलें अलग-अलग कारणों से बंद हुई। हालांकि जगतदल जूट मिल महज एक सप्ताह के बाद फिर खुल गया लेकिन उत्पादन नहीं हो रहा है। शादी-ब्याह का मौसम होने की वजह से भारी संख्या में मजदूर पहले ही गांव चले गये थे। मिल बंद होते ही कुछ और मजदूर गांव की ओर रुख किये। अब मिल तो खुल गया लेकिन पर्याप्त मजदूर नहीं है। मिल के अस्थायी श्रमिक देवेंद्र गुप्ता कहते हैं कि बकाया पीएफ व महंगाई भत्ता की मांग को लेकर प्रबंधन और मजदूरों के बीच टसल चल रहा था। यूनियनों ने इसे सुलझाने की कोशिश की लेकिन बात बनी नहीं और मिल में जून के पहले सप्ताह में प्रबंधन की ओर से तालाबंदी की घोषणा कर दी गयी। हालांकि फिर द्विपक्षीय बैठक के बाद मामला सुलझा और मिल खुला।
वहीं टीटागढ़ दो नंबर जूट मिल के नाम से ख्यात लूमटेक्स इंजीनियरिंग लिमिटेड मई के तीसरे सप्ताह में बंद हो गयी। मजदूर अपनी मांगों को लेकर प्रबंधन के सामने विरोध प्रदर्शन कर रहे थे। देखते –देखते यह प्रदर्शन उग्र हो गया और प्रबंधन पक्ष का एक अधिकारी आंदोलनकारी मजदूरों का कोप भाजन बना। अस्पताल जाने के क्रम में उस अधिकारी की मृत्यु हो गयी। तब से मिल बंद है। आंदोलनकारी मजदूरों में से 16 मजदूरों को पुलिस उक्त अधिकारी की हत्या के आरोप में तलाश कर रही है। मिल बंद होने से साढ़े तीन हजार मजदूरों के सामने बेरोजगारी की समस्या खड़ी हो गयी है। हालांकि इन डेढ़ महीनों में मिल को खुलवाने के लिए तीन बार बैठकें हो चुकी हैं।
मजदूरों की बकाया राशि के भुगताने को लेकर 21 जून को कोलकाता से 34 किलोमीटर दूर जगतदल स्थित एलायंस जूट मिल में प्रबंधन व मजदूरों के बीच ठन गयी। आक्रोशित मजदूरों ने मिल में तोड़फोड़ भी की। इसके बाद मिल प्रबंधन की ओर से तालाबंदी की घोषणा कर दी गयी। इसमें कुल 2600 मजदूर काम करते हैं।
वहीं हुगली जिले के भद्रेश्वर स्थित नार्थ श्यामनगर जूट मिल में भी मजदूरों के बकाया राशि के भुगतान को लेकर मामला गर्म हुआ है और 20 जून को उसमें भी तालाबंदी की घोषणा कर दी गयी। इसमें तकरीबन 3400 मजदूर काम करते हैं। इस तरह राज्य में लगभग प्रति महीने एक न एक मिल बंद होती है। इनमें कुछ खुलती हैं तो कुछ हमेशा के लिए बंद हो जाती हैं।
हौसला जुर्म है...बेबसी जुर्म है...
अपने गांव देस को बेगाना बना वे बंगाल आये थे। कुछ कमाने की आस में। अपने जांगर के बल पर भाग्य बदलने का सपना लेकर। अब जांगर थक गया। यह बंगाल भी बेगाना हो गया है। यह कहानी जूट मजदूरों की है। जमाना बदला। एक बार फिर इतिहास अपने को दुहरा रहा है। बस डेस्टीनेशन बदल गया है। पहले बयार पूरब की ओर बहती थी। नयी पीढ़ी पछुआ में बह रही है। बंगाल को अपना घर-दुआर मान बैठे जूट श्रमिकों के बच्चे अब गुजरात के सूरत में जरी का काम करने जाते हैं। दिल्ली, हरियाणा, पंजाब उन्हें बुलाता है। बंगाल में चाकरी की आस खत्म हो गयी है।
गोपालगंज के दिघवा-दिघौली के रामाश्रय ठाकुर से पूछिए। मेघना मिल में 47 साल से काम करने वाले ठाकुर ने यहीं जमीन खरीदकर छोटा सा घर बना लिया है। गांव से नाता-रिश्ता शादी-ब्याह के मौके पर जाने भर तक है। सोचा था नयी पीढ़ी को बंगाल में ही सेट कर देंगे। सोच बस सोच में सिमट कर रह गयी। तीन बेटे दिल्ली में सिक्योरिटी गार्ड हैं। काफी दिनों तक यूनियन के नेताओं तथा कंपनी के बाबुओं के पीछे-पीछे घुमे लेकिन एक बेटे को भी नौकरी नहीं दिला पाये। वही बेटा दिल्ली गया तो अपने साथ एक दर्जन युवकों को नौकरी देने के काबिल हो गया है।
रामाश्रय कहते हैं कि सुना है टाटा का कारखाना लग रहा है। वहां पता नहीं कौन से लोगों को नौकरी मिलेगी। जूट मिलों में तो लगातार छंटनी हो रही है।
अयोध्या प्रसाद सिंह को उनके ममेरे भाई ने बंगाल बुलाया था। वे उन दिनों को याद करते हैं। भाई ने उनके जैसे दर्जनों लोगों को नौकरी दिलाई। अब सच में वे दिन बस कहानियों जैसे लगते हैं।
मिलों में अब बदली मजदूर रखे जाते हैं। 70 रुपये की मजदूरी पर। बिहार से, उत्तर प्रदेश से, झारखंड से आकर कोई क्यों इतनी कम मजदूरी पर नौकरी करना चाहेगा। खायेंगे क्या और बचायेंगे क्या ? अयोध्या के बेटे शनिवार को मिल के गेट पर लगने वाले साप्ताहिक बाजार में गमछा-लूंगी बेचते हैं।

कोलकाता से 40 किलोमीटर की दूरी पर स्थित गौरीपुर जूट मिल 17 साल से बंद है। अधिकांश मजदूर गांव लौट गये। जो यहां रह गये उनमें से कुछ फेरी लगाते हैं। कुछ ने साइकिल मरम्मत की दुकान खोल ली है। कुछ गरीबी से हार गये। फिर जिंदगी से भी। मजदूरों की बस्ती में नयी पीढ़ी के कुछ लोग रहते हैं। वे छोटे-मोटे धंधे से जुड़ गये हैं। जूट मिल का मजदूर नहीं बनना चाहते।
आंकड़ा (श्रम संगठनों के अनुसार)
जूट मिलों की संख्या (पूरे देश में) – 73
पश्चिम बंगाल में जूट मिलों की संख्या- 59
बंद मिलों की संख्या- 6
लूम की संख्या- 39,733
स्पेंडल की संख्या- 5,07,960
उत्पादन (वार्षिक)-6,24,000 टन
मजदूरों की संख्या- 2.03 लाख
महिला मजदूरों की संख्या- 13, 700
बकाया भविष्यनिधि की राशि – 160 करोड़
बकाया ईएसआई की राशि – 85 करोड़
(निरुपम सेन- उद्योग मंत्री)

हमारे प्रयासों से ही बचा है जूट उद्योग – निरुपम सेन
उद्योग व वाणिज्य मंत्री

राज्य के उद्योग मंत्री निरुपम सेन कहते हैं कि सरकार राज्य में औद्योगिक विकास के लिए सभी तरह के उपाय कर रही है। ऐसे में परंपरागत जूट उद्योग के प्रति उदासीनता का आरोप बेबुनियाद है। सरकार ने जूट उद्योग की स्थितिसुधारने के लिए नई नीति बनायी है। इसमें श्रमिकों के हित, बाजार की संभावना और मिल मालिकों के हितों को भी ध्यान में रखा गया है। सरकार ने कई जूट मिलों को टैक्स में भारी छूट दी है। इसके अलावा श्रमिकों के बकाया के भुगतान के लिए भी मिल मालिकों के साथ बैठक कर सरकार ने रास्ता निकाला है। इस रुग्ण उद्योग को पटरी पर लाने में वक्त लगेगा लेकिन सरकार ने उद्योग को संरक्षण देने के लिए कई तरह की योजनाएं बनायी है। बंद जूट मिलों को खोलने के लिए कई प्रमोटरों से बातचीत चल रही है। केंद्र सरकार की राज्य में पांच जूट मिले थीं जो बंद हो गयीं। दूसरी ओर हम इस कोशिश में है कि निजी क्षेत्र की जो बंद मिले हैं, उन्हें किसी तरह खुलवाया जाये। सरकार की पहल पर पिछले आठ वर्ष में प्रमोटरों के माध्यम से तीन मिलें खुलवाई गयी हैं।

वामपंथी ट्रेड यूनियनों के प्रयास से बचीं हैं जूट मिलें – मृणाल
श्रम मंत्री
एक एक कर लगातार बंद हो रही जूट मिलों के संबंध में राज्य के श्रम मंत्री मृणाल बनर्जी का कहना है कि वर्तमान में जो मिलें चल रही है वह वामपंथी ट्रेड यूनियनों की ही देन है। अन्यथा बंगाल से जूट मिलों का अस्तित्व की खत्म हो गया होता। यूनियनों के लगातार आंदोलनों की वजह से मजदूरों को प्रतिदिन दो सौ रुपये तक की मजदूरी मिल रही है। केंद्र सरकार की गलत जूट नीति का खामियाजा मजदूरों को भुगतना पड़ रहा है। हाल में केंद्र सरकार की नेशनल जूट मैन्यूफैक्चरिंग कॉरपोरेशन की टीटागढ़ व खड़दह इकाई बंद हो गयी। इससे 15 हजार से अधिक मजदूर बेरोजगार हो गये। आखिर इसके लिए कौन जिम्मेदार है ? राज्य सरकार की पहल पर कई मिलें दोबारा खुली हैं।



भरोसा खोतीं यूनियनें – गोरखनाथ मिश्र
वरिष्ठ श्रमिक नेता
जूट मिल के श्रमिकों के साथ पांच दशक गुजारने वाले प्रो. गोरखनाथ मिश्र जूट उद्योग के बदहाल होने के तीन कारण बताते हैं। पहला वामपंथी दलों का उग्र आंदोलन, दूसरा केंद्र सरकार की ओर से प्लास्टिक लाबी को जरुरत से ज्यादा प्रोत्साहन देना और तीसरा केंद्र व राज्य सरकार की ओर से जूट मिलों के प्रति उदासीन रवैया।
श्री मिश्र कहते हैं कि स्थिति ऐसी है प्रवासी मजदूर यूनियनों के लंबे चौड़े वादों से ऊब गये हैं। प्रबंधन से भला होने की कोई आस नहीं है। ऐसे में वे मजबूर महसूस करते हैं। अधिकांश प्रवासी श्रमिकों में लगभग सभी उम्र के 50 वें वर्ष को पार कर चुके हैं। कहीं अन्यत्र रोजगार के लिए जाना और जोखिम भरा है। इस स्थिति में वे दिन गिन रहे हैं कि कब रिटायर होंगे। श्रमिकों की नई पीढ़ी बेराजगारी की मार झेलने से बेहतर कम दिहाड़ी में ही सही कुछ कमा लेने की उम्मीद से जुड़ी है। वाउचर पद्धति शुरू की गयी है। जहां स्थाई श्रमिकों को प्रतिदिन 272 रुपये की दिहाड़ी मिलती है वहीं नये श्रमिकों को सिर्फ सौ रुपये। इसके अलावा उन्हें और कोई सुविधाएं भी नहीं मिलतीं। सरकार के उदासीन रवैये से ट्रेड यूनियनें कुछ कर पाने की स्थिति में नहीं है। श्रमिक व श्रमिक संगठन सब स्वयं को मजबूर महसूस करते हैं और इससे उबरने का रास्ता नहीं दिखता।

घोर संकट से गुजर रहा भोजपुरी समाज – नारायण दूबे
पटकथा लेखक

कई भोजपुरी फिल्मों के लिए पटकथा लिखने वाले नारायण दूबे की कहानियों में पुरबिया पात्रों की धाकड़ उपस्थिति दिखती थी। जूट मिल के श्रमिकों के जीवन को मार्मिक तरीके से उन्होंने पेश किया है। बिहार, उत्तर प्रदेश के दर्शकों ने इन फिल्मों को सराहा। उन्हें लगता था कि फिल्म का नायक कोई उनका अपना ही है। नाराय़ण दूबे कहते हैं कि अब भोजपुरी फिल्मों का नायक कैरियर की तलाश में मुंबई व लंदन जाता है। कोई फिल्म निर्माता या पटकथा लेखक नायक को कलकत्ता में रहते दिखाने का रिस्क नहीं लेना चाहता।

उनका कहना है कि हालात तेजी से करवटें ले रहा है। ग्लोबलाइजेशन के दौर में लोग पश्चिम की ओर से देख रहे हैं। नारायण दूबे महसूस करते हैं कि इन जूट मिल के श्रमिकों के जीवन का शीत-बंसत उन्हें पात्र गढ़ने के लिए रा मेटेरियल व ऊर्जा उपलब्ध कराता था। उनका कहना है कि 80 के दशक में एक के बाद एक मिलें रुग्ण अवस्था में जाने लगीं। उस समय ही राज्य सरकार को चेत जाना चाहिए था लेकिन सत्ताधारी दल की ट्रेड यूनियनें सर्वहारा वर्ग की मसीहा बनने की फिराक में लगी रहीं। मिल मालिकों पर श्रमिक हितों के नाम पर दबाव बनाया गया। पूरे परिदृश्य को समझें तो साफ होता है कि वामपंथी ट्रेड यूनियनों के उग्र आंदोलन से श्रमिकों को तात्कालिक तौर पर कुछ फायदा हुआ लेकिन जूट उद्योग के भविष्य को ग्रहण लग गया। लेबोरियस मैन का डेस्टीनेशन बदल गया। कलकतिया बालम मुंबईया बाबू हो गये....।

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