Wednesday, August 19, 2009



शहरनामा

Saturday, July 11, 2009

‘कविता द्रव्य होती है, जो स्वतः बह निकलती है’

(त्रिलोचन शास्त्री से पहली और आखिरी मुलाकात)
श्रीराजेश
आज सुबह बिजली फिर गुल हो गयी, रोजाना की तरह, और नींद जल्दी खुल गयी, काम कुछ था नहीं. होता भी कैसे ? दिल्ली या नोएडा आये अभी खींच-तान कर डेढ माह बीते हैं, सोचा कि बैग का सामान अव्यवस्थित हो गया है, सहेज दूं. इसी क्रम में मुझे बाबा (त्रिलोचन शास्त्री) की मैं तुम्हें सौंपता हूं काव्य संग्रह दिख गया, जिसे मैंने कोलकाता से दिल्ली के सफर के दौरान पढ़ने के लिए अपने मित्र से ले कर आया था. संग्रह दिखते ही वह दिन मुझे याद आ गया, जब पहली और आखिरी बार मैं बाबा से मिला था. उस समय मुझे ये अंदाजा नहीं था कि बाबा से ये मुलाकात बार-बार याद करने लायक है. उन्हें मैं बाबा कहता हूं. यह संबोधन खुद उन्हीं द्वारा दिया हुआ है.
बात 1994-95 की रहीं होगी. कोलकाता में मैं जनसत्ता में स्ट्रीगरी की जुगाड़ में था. उस समय वहां के समाचार संपादक अमित प्रकाश सिंह हुआ करते थे. जब जनसत्ता कायार्लय पहुंचता तो अमित जी कवि सम्मेलन, विचार गोष्ठी, किसी राजनीतिक दल के धरना-प्रदर्शन को कवर करने का इसानमेंट दे देते और मेरा दिल बाग-बाग हो जाता. इसी तरह कोलकाता में गैर सरकारी स्कूलों की बढ़ती संख्या पर उन्होंने मुझे एक फीचर तैयार करने को कहा, साथ ही चीफ रिपोर्टर गंगा प्रसाद जी (अभी पटना में है) से इससे संबंधित विंदु लिखवा लेने का निर्देश दिया. गंगा जी के टेबल पर जनसत्ता के उस दिन का अंक पड़ा था और उसमें त्रिलोचन शास्त्री के कोलकाता आने की खबर छपी थी. इसके पहले कवि गोष्ठियों को कवर करते मैं सतही तौर पर त्रिलोचन और नागार्जुन दोनों बड़े कवियों के विषय में बहुत कुछ सुन रखा था. खबर पर नजर पड़ते ही मैंने गंगा जी से कहा कि त्रिलोचन जी के कार्यक्रम को कवर करने का इसानमेंट मुझे ही दिजिएगा. गंगा जी हंस दिये और कहा कि अमित जी तुम्हें कार्यक्रम देते हैं, उनसे ही ले लेना. मैं उनके पास से अमित जी के पास पहुंचा और वहीं बात कही. तो टालते हुए कहे कि अभी उनके आने में तो देर है, आयेंगे तो देखा जायेगा. बात आयी-गयी हो गयी. त्रिलोचन कोलकाता आये, कई गोष्ठियों में उन्होंने शिरकत की. जनसत्ता में सभी की खबरें भी छपी लेकिन मुझे किसी कार्यक्रम को कवर करने का मौका नहीं मिला. इससे अमित जी के प्रति थोड़ी खींज भी थी. लगभग एक सप्ताह बीते होंगे अमित जी ने मारवाड़ी समुदाय के एक हास्य कवि सम्मेलन की रिपोर्टिंग करने के लिए कहा. अब मेरी खींज और बढ़ गयी और मैंने बगैर सोचे समझे तन से कह दिया कि जितने घटिया कार्यक्रम होते हैं वहीं आप मुझे थमा देते हैं, त्रिलोचन शास्त्री वाली कवि गोष्ठी का इसानमेंट मांगा था तो आपने दिया ही नहीं. भले ही मैं उसकी खबरे ठीक ढंग से नहीं लिख पाता लेकिन जो सीनियर गये थे, उनके साथ ही मुझे भेज देते तो कम से कम मैं उनसे मिल लेता या उन्हें देख लेता. इस पर कोई टिप्पणी करने के बजाय उन्होंने कहा कि अच्छा अब जाओ और अपना काम करो, दिमाग मत खाओ. मैं आ कर अपनी खबरें लिखने लगा. रात के साढ़े नौ के करीब बजे होंगे. घर लौटने की तैयारी कर रहा था. तभी अरविंद (चपरासी) आया और कहा कि अमित जी बुला रहे हैं. मैंने सोचा कल के लिए कुछ निर्देश मिलने वाले होंगे. गया तो उन्होंने बड़े प्यार से बैठाया और पूछा – आखिर तुम क्यों त्रिलोचन जी से मिलना चाहते हो ? मैंने कहा- वे बड़े कवि हैं, स्वाभाविक है कि उनसे मिलने की इच्छा होगी ही. वे हंसने लगे और कहा कि कल तुम्हारा कोई भी इसानमेंट दोपहर दो बजे के बाद ही है, सुबह उनसे जा कर मिल लेना, पता लिख लो. उन्होंने दक्षिण कोलकाता के टालीगंज के रानीकुटी का एक पता लिखा दिया. मैं चला आया.
सियालदह रेलवे स्टेशन पहुंचा तो हमारे कई मित्र पूर्व निर्धारित समय के अनुसार वहां मौजूद थे. इसमें प्रकाश, संजय जायसवाल, और अर्जून सिंह थे. लोकल ट्रेन में बैठे तय हुआ कि प्रकाश भी सुबह मेरे साथ त्रिलोचन जी से मिलने चलेगा. वह अच्छी कविताएं उस समय भी लिखता था, और अब तो लिखता ही है. वह मेरा लंगोटिया मित्र है. अभी वह आगरा में केंद्रीय हिंदी संस्थान की गवेषणा पत्रिका में बतौर सह संपादक कार्यरत है.
अगले दिन प्रकाश मेरे घर अपनी कुछ कविताओं के साथ चलने की तैयारी में आया और साथ हम भी अपनी कविताओं की डायरी लिए चल पड़े. निर्धारित पते पर पहुंचे, कालबेल बजाया, एक महिला निकलीं, हमने अपना आशय बताया. उन्होंने बैठकखाने में बैठा दिया. वहां टेबल पर कई हिंदी –अंग्रेजी के अखबार और कई साहित्यिक पत्रिकाएं रखी थीं. हम दोनों उन पत्रिकाओं को पलटना शुरू किया. ये वैसी पत्रिकाएं थी, जिनका नाम सुना था लेकिन इनमें से कई पत्रिकाओं का कोई अंक देखा नहीं था.तभी वह भद्र महिला बैठकखाने में आयीं और पानी दे कर एक ओर संकेत करते हुए कहा – त्रिलोचन जी उस कमरे में है. वहीं चले जायें.
हमने एक सांस में गिलास का पानी खत्म किया और हिचकते हुए कमरे की ओर बढ़े और दरवाजे पर जा कर टिकक गये. भीतर बढ़ी दाढ़ी, विखरे बाल, आसमानी रंग की लुंगी, हां लुंगी ही थी. पीले रंग की कमीज पहने एक वृद्ध पलंग पर लेटे थे. अखबारों में छपी तस्वीरों को देखा ही था, सो तुरंत पहचान गया, यहीं हैं त्रिलोचन. हम दोनों ने श्रद्धापूर्वक हाथ जोड़ प्रणाम किया. प्रणाम की आवाज सुन, उठते हुए उन्होंने हम दोनों को आशीष भी दिया और सामने रखी कुर्सी पर बैठने का संकेत किया. कुर्सी एक ही थी, जिस पर मैं बैठ गया और प्रकाश उनके पलंग पर पायताने बैठा बाबा ने बारी-बारी से नाम पूछा. वह धीरे-धीरे हमारी पढ़ाई लिखाई के साथ घर परिवार के विषय में भी बातें करने लगे और महज दस मिनट बीते होंगे कि उनके बातचीत करने के अंदाज से हमारी सारी हिचकिचाहटें दूर हो गईं और हम दोनों सामान्य हो गये. वहीं एक आलमारी में कई सम्मान पत्र, रखे हुए थे. उन्ही में से एक पर उनकी जन्मतिथि 20 अगस्त 1977 अंकित था. जबकि उनकी जन्मतिथि 20 अगस्त 1917 है. हमने कहा- बाबा इस पर तो आपकी जन्मतिथि 1977 है ? तो उन्होंने तपाक से हंसते हुए कहा- मैं क्या तुमलोगों से ज्यादा उम्र का दिखता हूं ? हमलोग कुछ बोलने की स्थिति में नहीं थे. इसके बाद उन्होंने बताया कि गलती से वहां 1917 की जगह 1977 अंकित हो गया है. और वे इस तरह की गलतियों की पूरी फेहरिस्त सुनाने लगे. हम उनके संस्मरण को बड़ी उत्कंठा से सुनते रहे. तभी प्रकाश ने पूछा कि बाबा, सानेट आप लिखते है और हम लोग सानेट के विषय में सुने तो हैं लेकिन जानते नहीं, यहां तक कि आपकी लिखी सानेट भी नहीं पढ़ी है. बाबा ने तुरंत एक पुरानी पत्रिका प्रकाश को थमा दी. इसमें उनके कुछ सानेट थे और इसके बाद वह सानेट के विषय में विस्तार से बताने लगे.इसके बाद बारी-बारी से हमने अपनी कविताएं भी उन्हें सुनाई. और हमारी नादानी भरी कविताएं बड़ी चांव से सुनते रहे. जब दोनों कि कविताएं खत्म हो गयी. तो उन्होंने कहा – अच्छा लिखते हो, लेकिन पहले साहित्यिक पत्रिकाए पढ़ो. फिर लिखो. कविता द्रव्य होती है, जो स्वतः मन से बह निकलती है. उनके यह शब्द अब भी जेहन में वैसे ही बरकरार है. हम दोनों साहित्य के दंतहीन शावक थे लेकिन यह उनकी सहजता ही थी कि वे हम दोनों से इस तरह बातें कर रहे थे जैसे हम सही मायने में साहित्य के अनुरागी हो. सच तो यह है कि जब वे सानेट के विषय में बताते हुए उस मुद्दे से भटक कर अंग्रेजी साहित्य के विषय में बोलने लगे और अंग्रेजी के कवियों का नाम लेते थे तो उनकी आधी बातें हमरी समझ में हीं नहीं आयी. हालांकि वे बार बार पूछते यह सुना है- उनकी हर बात में हां में सर हिला देते. लेकिन वह ताड़ जाते कि हमारे पल्ले कुछ नहीं पड़ा. उनके पास बैठे तकरीबन एक घंटा हो चुका था. उन्होंने पूछा – कुछ खाओगे ? सुबह जल्दी ही निकल गये थे. खाया कुछ नहीं था. भूख लगी ही थी. हां में सर फिर हिला दिया. वह उठे अंदर गये और एक प्लेट में पहवा ले कर आये. प्लेट में चम्मच नहीं था. पास पड़े अखबार के एक टूकड़े को उन्होंने चम्मच बना कर हमें पकड़ा दिया. हम पहवा खाते रहे और वे साहित्य के विषय में अमृतवर्षा करते रहे, हम भींगे भी लेकिन इसका असर अंदर तक नहीं हुआ. पहवां खतम हुआ तो हम चलने को तैयार हुए. उन्होंने ढ़ेर सारी पत्र-पत्रिकाएं पहली मुलाकात का उपहार स्वरूप दिया और अंत में पूछा कि कैसे आये यहां ? तब हमने बताया कि जनसत्ता के अमित जी ने यहां का पता दिया था. वह हंसने लगे. हम समझ नहीं सके और उनका आशीष ले हम लौट गये.
शाम को दफ्तर पहुंचा तो अमित जी ने देखते ही पूछा – गये थे ?
मैंने कहा – जी.
क्या-क्या बातें हुई?
मैंने वह सब बताना शुरू किया, तभी संपादक जी ने उन्हें अपनी केबिन में बुला लिया और मैं गंगाजी के पास चला गया. मैं त्रिलोचन जी से मिल कर अति प्रसन्न था, चेहरे पर प्रसन्नता के भाव दिख रहे थे, सो गंगा जी बोले – क्या हिरो, क्या हाल है ? मैंने उन्हें भी बताया कि कहां से आ रहा हूं. जब वे सुन लिये तो बोले कि अमित जी तुम लोगों कुछ खिलाया या पानी पिला कर ही टरका दिया. मैंने कहा कि हम अमित जी के यहां थोड़े गये थे, त्रिलोचन जी से मिलने गये थे. वह अपने किसी संबंधी के यहां रानीकुटिर में ठहरे है. गंगा जी हंसने लगे और कहा- अमित जी के पिता है त्रिलोचन शास्त्री और तुम जहां से मिल कर आ रहे हो वह अमित जी का ही घर है, हम यह सुन कर आश्चर्यचकित हुए बगैर नहीं रहे और मेरी नजर में त्रिलोचन जी के साथ अमित जी भी महान हो गये.

Monday, April 6, 2009

नंदीग्राम की राह पर लालगढ

नंदीग्राम की राह पर लालगढ

रीता तिवारी
कोलकाता। पश्चिम बंगाल के माओवादी सक्रियता वाले पश्चिम मेदिनीपुर जिले के लालगढ़ और झारग्राम समेत कई आदिवासी बहुल इलाके नंदीग्राम में बदलते जा रहे हैं। बीते दो नवंबर को केंद्रीय मंत्री राम विलास पासवान और मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य के काफिले पर बारूदी सुरंग के विस्फोट के जरिए हमले के बाद मामले की जांच के लिए पुलिस की कथित ज्यादातियों के खिलाफ इलाके के आदिवासी संगठनों ने राज्य सरकार और प्रशासन के खिलाफ आंदोलन छेड़ दिया था। दो हफ्ते बाद भी यह आंदोलन जस का तस है। सरकार को इससे निपटने का कोई रास्ता नहीं नजर आ रहा है। आदिवासियों ने तमाम सड़कें या काट दी हैं या फिर उन पर पेड़ रख कर आवाजाही ठप कर दी है। नतीजतन इलाके का संपर्क देश के बाकी हिस्सों से कट गया है। सरकार की दलील है कि इस आंदोलन के पीछे माओवादियों का हाथ है। लेकिन वह इससे आगे कुछ कर नहीं पा रही है। स्थानीय संगठनों ने पुलिस ज्यादातियों के लिए मुख्यमंत्री से सार्वजनिक तौर पर माफी मांगने को कहा है।झारग्राम अनुमंडल के बेलपहाड़ी, जामबनी, ग्वालतोड़, गड़वेत्ता और सालबनी स्थानों पर अनेक जगह सड़कें काट दी गई हैं और 600 पेड़ों को काट कर गिरा दिया गया है। जिला प्रशासन की दलील है कि झारखंड से लगभग सौ संदिग्ध माओवादी लालगढ़ के कठपहाड़ी इलाके में घुस आए हैं। पूरे क्षेत्र में प्रशासन नाम की कोई चीज नहीं रह गई है। लालगढ़ मुद्दे पर अब राजनीति भी गरमाने लगी है। पक्ष व विपक्ष दोनों खेमे के नेता परस्पर विरोधी बयान दे रहे हैं। वाममोर्चा का नेतृत्व करनेवाली माकपा ने जहां आदिवासी आंदोलन के पीछे माओवादियों का हाथ बताया है वहीं तृणमूल सुप्रीमो ममता बनर्जी ने आंदोलन का समर्थन किया है। बनर्जी ने लालगढ़ मुद्दे पर भी केंद्र से राज्य की वाममोर्चा सरकार को बर्खास्त करने की मांग की है। उन्होंने सरकार के खिलाफ कड़ा कदम नहीं उठाने के लिए केंद्र के प्रति नाराजगी जतायी है। ममता बनर्जी ने कहा है कि पुलिस अधीक्षक राजेश कुमार सिंह व माकपा की मिलीभगत के कारण स्थानीय ग्रामीण आतंकित है। बाध्य होकर निर्दोष ग्रामीणों को आंदोलन का रास्ता अख्तियार करना पड़ा। तृणमूल कांग्रेस ग्रामीणों के आंदोलन का समर्थन करती है। उन्होंने लालगढ़ समस्या के लिए मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य को भी जिम्मेदार ठहराया और उनसे सार्वजनिक रूप से माफी मांगने की मांग की। माकपा राज्य सचिव विमान बोस ने भी दूसरे अंदाज में लालगढ़ मुद्दे पर केंद्र पर निशाना साधा है। बोस ने कहा कि आदिवासियों के आंदोलन को केंद्र से भी समर्थन मिल रहा है। राज्य को बांटने की साजिश चल रही है। बोस ने कहा कि वामपंथी दलों ने जब केंद्र की यूपीए सरकार से समर्थन वापस ले लिया तो झारखंड मुक्ति मोर्चा ने सशर्त समर्थन दिया। शर्त के मुताबिक अब पुरुलिया, बांकुड़ा, और पश्चिम मेदिनीपुर को झारखंड में शामिल करने की कोशिश की जा रही है। इसमें केंद्र की भी मदद है। लालगढ़ में राजनीतिक दबदबा रखनेवाले वाममोर्चा के महत्वपूर्ण घटक दल भाकपा को अपने पैरों तले की जमीन खिसकने का भय है। भाकपा राज्य परिषद के एक नेता का कहना है कि माओवादियों को पकड़ने के नाम पर पुलिस ने आदिवासियों के साथ ज्यादती की जिससे मसला गंभीर हो गया। आदिवासियों के साथ पुलिस की ज्यादती होती है तो इसकी भी जांच होनी चाहिए। भाकपा राज्य परिषद की दो दिवसीय बैठक के बाद प्रदेश सचिव मंजू कुमार मजूमदार ने कहा कि मुख्यमंत्री बुद्धदेव भंट्टाचार्य के काफिले को लक्ष्य कर सालबनी में बारूदी सुरंग विस्फोट की पार्टी निंदा करती है लेकिन दोषियों की धर-पकड़ के नाम पर आदिवासियों पर किसी तरह का जुल्म नहीं होना चाहिए। लालगढ़ में आदिवासी महिलाओं के साथ दु‌र्व्यवहार की भी खबर है। यदि इस तरह की घटना हुई है तो उसकी गंभीरता से जांच होनी चाहिए।सीआईडी ने इस मामले में गिरफ्तार कुछ लोगों में से सात के खिलाफ दर्ज मुकदमे को वापस लेने व जेल से रिहा करने की बात कही है। इसके लिए उसने कोर्ट में याचिका दायर की है और कहा है कि गिरफ्तार सात लोगों के खिलाफ विस्फोट में शामिल होने के पर्याप्त सबूत व तथ्य नहीं मिले हैं जिसकी वजह से यह फैसला किया गया है। सीआईडी सूत्रों ने बताया कि मंत्रियों के काफिले पर हमले के मामले में दस लोगों को गिरफ्तार किया गया था जबकि एक फरार है। इनमें से तीन लोगों को हथियार के साथ गिरफ्तार किया गया था। इसी बीच लालगढ़ समेत जिले के विभिन्न इलाकों में इन लोगों को गिरफ्तारी को लेकर आंदोलन शुरू हो गया जो फिलहाल जारी है। सीआईडी के स्पेशल आपरेशन ग्रुप के एक अधिकारी ने बताया कि गिरफ्तार आरोपियों में से सात के खिलाफ गहन पड़ताल की गयी लेकिन ऐसा एक भी सबूत हाथ नहीं लगा जिससे यह प्रमाणित होता हो कि वे विस्फोट में शामिल थे। उन लोगों के खिलाफ पहले से भी पुलिस के रजिस्टर में ऐसी कोई आपराधिक व उग्रवादी गतिविधियों से जुड़े मामले नहीं दर्ज हैं। इन्हीं सब बातों को ध्यान में रखते हुये सात लोगों को इस मामले से मुक्त करने का फैसला किया गया है।सामाजिक कार्यकर्ता एवं ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित लेखिका महाश्वेता देवी ने कहा है कि सरकार लालगढ़ में आदिवासियों को माओवादी बताकर अत्याचार नहीं करे। अगर प्रशासन अत्याचार करेगा तो आदिवासी अपने अधिकार के लिए संघर्ष करेंगे। उन्होंने कहा कि सरकार बिना किसी साक्ष्य के किस आधार पर लालगढ़ वआसपास के क्षेत्रों में रहने वाले आदिवासियों को माओवादी करार दे रही है जबकि जिंदल के स्टील प्लांट के लिए लगभग चार सौ एकड़ भूमि आदिवासियों की बिना अनुमति के ले ली गई है। अगर आदिवासी अपनी जिंदगी जंगल के सहारे और प्राकृति के करीब रहकर गुजारना चाहते हैं तो सरकार उन्हें भूमि से बेदखल क्यों कर रही है। उन्होंने कहा कि नंदीग्राम व सिंगुर की घटनाओं के बावजूद सरकार सचेत नहीं हुई है। लालगढ़ को भी रणक्षेत्र बनाने की कोशिश की जा रही है। उन्होंने कहा कि बड़ी कंपनियों में आदिवासियों को नौकरी नहीं मिलती और अधिकांश नौकरियां सत्तारूढ़ दलों के समर्थकों के पास चली जाती उन्होंने कहा कि अपने आपको वामपंथी कहने वाली सरकार को आमलोगों से अधिक चिंता पूंजीपतियों की है।इसबीच, कोलकाता के दौरे पर आए केन्‍द्रीय इस्पात और रसायन मंत्री रामविलास पासवान ने सालबनी में दो अक्‍टूबर को अपने काफिल पर हुए माओवादी हमले का पूर्वानुमान नहीं लगा पाने के लिए पूरी तरह पश्चिमी मिदनापुर के स्थानीय प्रशासन को जिम्‍मेदार ठहराया है। राष्ट्रीय खनिज विकास निगम और पश्चिम बंगाल खनिज विकास और वाणिज्य निगम के बीच सहमति पत्र पर हस्ताक्षर किये जाने के बाद पत्रकारों से बातचीत में पासवान ने कहा कि इसकी वजह से स्थानीय प्रशासन द्वारा कानून व्यवस्था की स्थिति का सही आकलन नहीं किया जाना और जरुरी कदम नहीं उठाया जाना हैं।उन्होंने कहा कि इस घटना के बाद अतिविशिष्ट व्यक्तियों के बीच संवादहीनता रही, जिससे पूरे घटनाक्रम में भ्रम की स्थिति बनी। उन्होंने कहा कि मुठभेड़ के बाद मुख्‍यमंत्री ने मुझे उच्चशक्ति के तार के बारे में बताया, जबकि बाद में बारुदी सुरंग की पुष्टि हुई।दो नवम्‍बर को सालबनी में इस्पात संयंत्र का उद्घाटन करने के बाद लौट रहे पासवान, राज्यमंत्री जितिन प्रसाद, उद्योगपति सज्जन जिंदल और मुख्‍यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य उस समय बाल-बाल बचे थे, जब माओवादियों ने उनके काफिल पर बारुदी सुंरग में विस्फोट करके हमला कर दिया था।www.janadesh.in se

Thursday, September 25, 2008

दर्द कुछ गहरा हो तो गुनगुनाओ.....

दर्द कुछ गहरा हो तो गुनगुनाओ.....
हेमंत दा की १९ वीं पुण्यतिथि पर विशेष


श्रीराजेश
सुरों के राही हेमंत दा को अलविदा कहे १९ साल हो गये लेकिन है अपना दिल तो आवारा...... गाने आज भी लोग गुनगुनाते है। गायन की विशिष्ठ शैली की वजह से उनकी अपने समकालीनों में अलग पहचान बनी। अपनी गहरी आवाज और विशिष्ट गायन शैली के साथ संगीत की विविध विधाओं में जबरदस्त ख्याति अर्जित करने वाले गायक-संगीतकार हेमंत कुमार की 26 सितम्बर को पुण्यतिथि है।
ऐसे समय में जब गायकी, कला से ज्यादा व्यवसाय में तब्दील हो चुका हो, रियलिटी शोज ने हर गाने वाले के सामने अवसरों की भरमार पैदा कर दी हो और प्रौद्योगिकी ने हर जुबान रखने वाले को गायक का रुतबा दे दिया हो, सच्ची और मासूम आवाज के धनी हेमंत दा जैसे गायक की याद एक ठंडी हवा के झोंके के समान आती है।
सन 1920 में वाराणसी में एक बंगाली परिवार में जन्मे हेमंत के घरवाले उनके बचपन में ही कोलकाता चले गए। आरंभिक शिक्षा दीक्षा के बाद हेमंत के परिजनों की इच्छा थी कि वे जादवपुर विश्वविद्यालय में इंजीनियरिंग की पढ़ाई करें लेकिन उन्होंने उनसे बगावत करके संगीत में अपना भविष्य चुनने की ठानी।
संगीत के प्रति अपनी दीवानगी के बारे में उन्होंने एक साक्षात्कार में कहा था, "मैं हमेशा गाने का मौका तलाशता रहता था चाहे वो कोई धार्मिक उत्सव हो या पारिवारिक कार्यक्रम। मैं हमेशा चुने हुए गीत गाना पसंद करता था।"
हेमंत दा ने जिस दौर में संगीत को गंभीरता से लेना शुरू किया उसे हिंदी सिनेमा के 'सहगल काल' के नाम से जाना जाता है। यह वह दौर था जब गायकी पर कुंदनलाल सहगल और पंकज मलिक जैसे गायकों का लगभग एकाधिकार था और नए गायकों के लिए सिने जगत में जगह बनाना ख्वाब के समान था।
चालीस के दशक के मध्य धुन के पक्के हेमंत 'भारतीय जन नाट्य संघ' (इप्टा) के सक्रिय सदस्य बन गए और वहीं उनकी दोस्ती हुई गीतकार-संगीतकार सलिल चौधरी से। सन 1948 में हेमंत ने गान्येर बधु (गांव की बहू) शीर्षक वाला एक गीत गाया जो सलिल चौधरी द्वारा लिखा और संगीतबद्ध किया गया था। छह मिनट के इस गीत में बंगाल के एक गांव की बहू के दैनिक जीवन का चित्रण किया गया था।
इस गीत ने हेमंत और सलिल दोनों को अपार लोकप्रियता दिलाई। दूसरे शब्दों में कहा जाए तो यही वह गीत था जिसने हेमंत कुमार को अपने समकालीनों के समकक्ष स्थापित किया। इसके बाद सलिल और हेमंत की जुगलबंदी ने बांग्ला संगीत जगत में खूब धूम मचाई।
कुछ बंगाली फिल्मों में संगीत देने के बाद हेमंत मुंबई आ गए और उन्होंने सन 1952 में अपनी पहली हिंदी फिल्म को संगीत दिया जिसका नाम था ‘आनंद मठ’। इस फिल्म में लता मंगेशकर के गाए गीत ‘वंदे मातरम’ ने अभूतपूर्व ख्याति अर्जित की। साथ ही साथ हेमंत ने पार्श्‍व गायक के रूप में अपनी पहचान बनानी शुरू कर दी। अभिनेता देवानंद की शुरुआती फिल्मों 'जाल' और 'सोलहवां साल' में गाए उनके गीतों 'ये रात ये चांदनी..' और 'है अपना दिल तो आवारा..' आदि ने हेमंत कुमार के लिए अपार लोकप्रियता हासिल की।
जाल, नागिन, अनारकली, सोलहवां साल, बात एक रात की, बीस साल बाद, खामोशी, अनुपमा आदि फिल्मों में हेमंत दा की मधुर आवाज का जादू लोगों के सिर चढ़कर बोलने लगा। तुम पुकार लो.., जाने वो कैसे लोग थे.., छुपा लो तुम दिल में प्यार मेरा.., ना तुम हमें जानो.. जैसे सदाबहार गीतों ने श्रोताओं के मन पर अमिट छाप छोड़ी।
तितली के परों की सी कोमल आवाज का मालिक, सुरों का यह राही 26 सितम्बर 1989 को सदा-सदा के लिए सो गया।
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